Friday, September 20, 2019

आंकड़ों के खेल में फंस रही है देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था


देश में उच्च शिक्षा को लेकर काफी समय से बहस चल रही है. इस साल द हायर एजुकेशन की रिपोर्ट में एक बार फिर देश के उच्च संस्थान को लेकर एक रिपोर्ट आयी है. जिसमें भारत एक बार फिर दुनिया की टॉप 300 यूनिवर्सिटी में शामिल नहीं हो पाया है. 

नई दिल्ली (New Delhi): दुनिया में भारतीय संस्कृति और शिक्षा की अलग पहचान है. देश के आईआईटी और मेडिकल कॉलेज में दुनिया के कई देशों से छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने पहुंचते हैं. 

दुनिया भर के शिक्षण संस्थानों पर शोध करने वाली संस्था द हायर एजुकेशन (The Higher Education) ने भारत की उच्च शिक्षा को लेकर एक आंकड़ा जारी किया है. ये आंकड़ा दुनिया की उच्च शिक्षण संस्थानों को रैंकिग प्रदान करता है. रैंकिग के आधार पर शिक्षण संस्थानों का विश्वपटल पर शिक्षा का स्तर यानी रैंकिग का निर्धारण होता है.

 इस साल दुनिया की 300 टॉप यूनिवर्सिटी में भारत का कोई भी   विश्वविद्यालय, उच्च संस्थान शामिल नहीं है. ये आंकड़ा बेशक   हैरान करने वाला है, क्योंकि देश में आईआईटी जैसे संस्थान तो   मौजूद हैं ही साथ ही उच्च शिक्षा के लिए दुनिया भर में मशहूर   विश्वविद्यालय और संस्थान मौजूद हैं, जिसमें आईआईएम,       मेडिकल   कॉलेज, आईआईटी शामिल
 हालांकि द हायर एजुकेशन की रिपोर्ट में ये सफाई भी दी गयी है   कि आईआईएससी संस्थान की रैकिंग के गिरने का कारण उसके   द्वारा रिसर्च पर मिले स्कोर को लेकर आई है. और ये बात भारत   के दूसरे संस्थानों पर भी लागू होती है.


                                                    देश की शिक्षा और उच्च शिक्षा की तस्वीर
ये बात जानकार आपको शायद हैरानी हो सकती है कि भारत में स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुंच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है.
नैसकॉम और मैकिन्से  (The NASSCOM-McKinsey report "Perspective 2020) के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं.
वहीं, राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद, NAAC (National Assessment and Accreditation Council) एक संस्थान है जो भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों का आकलन तथा प्रत्यायन (मान्यता) का कार्य करती है. नैक का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बेहद कमज़ोर है. भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी प्रत्येक वर्ष 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी रहती है.

कैसे बदलेंगे हालात ?
20 साल पहले मैनेजमेंट गुरू पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था, "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहां की शिक्षा का स्तर किस तरह का है."
अब क्योंकि देश को विश्व पटल पर अगर अपनी शिक्षण व्यवस्था और उच्च शिक्षा की रैंकिग को ठीक करना है तो ये जरूरी है कि उच्च शिक्षण संस्थानों को अपने रिसर्च पेपर और रैंकिग से संबंधित दस्तावेजों को विश्व पटल पर रखना चाहिए.
भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है. भारत को मौजूदा 11 फीसदी अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.

देश में पिछले  50 सालों में सिर्फ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 सालों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गयी. इसे बढ़ाने की आवश्यकता है.

इंफ़ोसिस के पूर्व प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है. इस सबके पीछे वहां के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है. यानी देश के संपूर्ण विकास का आधार शिक्षा का ऊंचा स्तर है जिसमें शोध को ज्यादा से ज्यादा स्थान दिया जाना चाहिए. 

बहरहाल, द हायर एजुकेशन के आंकड़ों के मुताबिक भारत के उच्च शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय दुनिया के टॉप 300 उच्च शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालयों की श्रेणी में शामिल नहीं हैं. लेकिन ये बात भी सही है कि भारत का उच्च शिक्षा का स्तर एशिया के देशों में काफी ऊंचे पायदान पर है. हमारे देश के शिक्षण संस्थान दुनिया में अपनी अलग पहचान बना रहे हैं. देश में विदेशों से उच्च शिक्षा हासिल करने छात्र भी आ रहे हैं. ऐसे में द हायर एजुकेशन का ये आंकड़ा चिंता तो पैदा करता है लेकिन, परेशानी का कारण नहीं हो सकता. क्योंकि देश में शिक्षा के स्तर के विकास के लिए सरकार निरंतर सार्थक कदम उठा रही है.

Wednesday, September 11, 2019

डूबते ऑटो सेक्टर के लिए कहां से लाएगी सरकार संजीवनी



दो साल से लगातार डूब रहा है ऑटो सेक्टर
सरकार ऑटो सेक्टर को लेकर क्यों मूंदेंरही आंखें!
क्या ओला ऊबर हैं ऑटो सेक्टर की मंदी का कारण?
क्यों सरकार कोई पुख्ता कदम उठाने से हिचक रही है.

नई दिल्ली (New Delhi) वित्त मंत्री ने डूबते ऑटो सेक्टर का ठीकरा ओला ऊबर पर तो फोड़ा ही साथ ये भी कहा है कि देश का युवा अब कार खरीदने से बच रहा है. लेकिन, क्या वाकई ये बयान डूबते ऑटो सेक्टर का कारण है? या फिर सरकार सेक्टर में छायी मंदी का कारण देश के लोगों को बताने से कतरा रहा है.
असल में ऑटो सेक्टर में मंदी अचानक तो आयी नहीं है. क्योंकि इस उद्योग से डायरेक्ट और इनडायरेक्ट तरीके से लाखों लोग जुड़ें हुए हैं. वहीं, मंदी की मार झेल रहा ये सेक्टर लगातार स्लो डाउन की ओर जा रहा है.

देश में लगातार दसवें महीने अगस्त में यात्री वाहनों की बिक्री कम हुई है. वाहन निर्माताओं के संगठन सियाम के आंकड़ों के मुताबिक अगस्त में यात्री वाहनों की बिक्री एक साल पहले इसी माह की तुलना में 31.57 प्रतिशत घटकर 1,96,524 वाहन रह गई. एक साल पहले अगस्त में 2,87,198 वाहनों की बिक्री हुई थी.




भारतीय आटोमोबाइल विनिर्माता सोसायटी (सियाम) के आंकड़ों के मुताबिक अगस्त 2019 में घरेलू बाजार में कारों की बिक्री 41.09 प्रतिशत घटकर 1,15,957 कार रह गई जबकि एक साल पहले अगस्त में 1,96,847 कारें बिकी थी.

इस दौरान दुपहिया वाहनों की बिक्री 22.24 प्रतिशत घटकर 15,14,196 इकाई रह गई जबकि एक साल पहले इसी माह में देश में 19,47,304 दुपहिया वाहनों की बिक्री की गई. इसमें मोटरसाइकिलों की बिक्री 22.33 प्रतिशत घटकर 9,37,486 मोटरसाइकिल रह गई जबकि एक साल पहले इसी माह में 12,07,005 मोटरसाइकिलें बिकी थीं.

सियाम के आंकड़ों के मुताबिक अगस्त माह में वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री 38.71 प्रतिशत घटकर 51,897 वाहन रही. कुल मिलाकर यदि सभी तरह के वाहनों की बात की जाये तो अगस्त 2019 में कुल वाहन बिक्री 23.55 प्रतिशत घटकर 18,21,490 वाहन रह गई जबकि एक साल पहले इसी माह में कुल 23,82,436 वाहनों की बिक्री हुई थी. ये वो आंकड़े हैं जो ये दर्शातें हैं कि वाहन बिक्री में लगातार मंदी अचानक नहीं आयी बल्कि ये मंदी पिछले दो साल से जारी है. जिसपर सरकार का ध्यान शायद अब गया है. या सरकार ने इसपर ध्यान देना नहीं चाहा.

वहीं इस क्षेत्र में रोजगार की बात की जाए तो सिर्फ देश में कार शॉरूम की ही बात की जाए तो देश में करीब 15 हजार डीलर्स के पास 26 हजार ऑटोमोबाइल शोरूम हैं. इसमें से करीब 25 लाख लोग सीधे तौर से नौकरी कर रहे हैं, जबकि 25 लाख लोग अस्थायी रूप से जुड़े हुए हैं. इसका मतलब यह है कि ऑटोमोबाइल शोरूम देश में करीब 50 लाख लोगों को रोजगार दे रहा है. जिसमें लगातार हो रही छटनी, शोरूम का बंद होना और निर्माण क्षेत्र और रॉ मैटिरियल देने वाले लोगों की संख्या इससे ज्यादा है. मंदी के कारण इन सभी पर बेरोजगारी का संकट तो है ही साथ ही इस क्षेत्र के डूबने से तकरीबन 2.5 करोड़ लोगों के बेरोजगार होने का खतरा भी है.

हालांकि बीते हफ्ते परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने ऑटो कंपनियों को भरोसा दिया था कि पेट्रोल और डीजल व्हीकल को बैन करने का कोई प्लान नहीं है.  उन्होंने कहा था कि ऑटो सेक्टर में स्लोडाउन वैश्विक आर्थिक कारणों से है. उन्होंने कहा था वित्त मंत्री जल्द इसको इसको सुलझाएंगी.

लेकिन बतौर वित्त मंत्री उनके पास भी डूबते ऑटो सेक्टर को लेकर कोई मजबूत रणनीति नहीं है. अब चलिए आपको हाल ही में आये वित्त मंत्री के बयान से रूबरू करवा देते हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि वाहन क्षेत्र में नरमी के कारणों में युवाओं की सोच में बदलाव भी है. लोग अब खुद का वाहन खरीदकर मासिक किस्त देने के बजाए ओला और उबर जैसी आनलाइन टैक्सी सेवा प्रदाताओं के जरिये वाहनों की बुकिंग को तरजीह दे रहे हैं. सीतारमण ने कहा कि दो साल पहले तक वाहन उद्योग के लिये अच्छा समय था. उन्होंने संवाददाताओं से कहा, कि निश्चित रूप से उस समय वाहन क्षेत्र के उच्च वृद्धि का दौर था. मंत्री ने कहा कि क्षेत्र कई चीजों से प्रभावित है जिसमें भारत चरण-6 मानकों, पंजीकरण संबंधित बातें तथा सोच में बदलाव शामिल हैं.

उन्होंने कहा कि कुछ अध्ययन बताते हैं कि गाड़ियों को लेकर युवाओं की सोच बदली है. वे स्वयं का वाहन खरीदकर मासिक किस्त देने के बजाए ओला, उबर या मेट्रो (ट्रेन) सेवाओं को पसंद कर रहे हैं. सीतारमण ने कहा, ‘‘अत: कोई एक कारण नहीं है जो वाहन क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं. हमारी उस पर नजर है. हम उसके समाधान का प्रयास करेंगे.'' भारत चरण-6 उत्सर्जन मानक एक अप्रैल 2020 से प्रभाव में आएगा. फिलहाल वाहन कंपनियां भारत चरण-4 मानकों का पालन कर रही हैं. यानी बयान के मायने निकाले जाए तो सीधे सीधे वित्त मंत्री का कहना है कि उनका ध्यान वाहन क्षेत्र के अगले चरण पर है. यानी अब वाहन कंपनियों को अपने घाटे का कारण खुद ही खोजना है.

टैक्स कटौती पर भी सरकार की दो टूक
अब आपको यहां ये भी याद दिला दें कि इससे पहले  वित्त मंत्री ने कहा था कि उद्योग जगत और ऑटो सेक्टर अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए जिस टैक्स कटौती की मांग कर रहे हैं, वह वित्त मंत्रालय से संभव नहीं है. यह काम जीएसटी काउंसिल करेगी. ये निर्मला सीतारमण ने कहा था कि जहां तक जीएसटी का सवाल है, इस पर जीएसटी को विचार करना है, जवाब देना है या फ़ैसला करना है. कोलकाता में टैक्स अधिकारियों के साथ बैठक के बाद वित्त मंत्री ने साफ़ कर दिया कि टैक्सों में कटौती पर फ़ैसला जीएसटी काउंसिल को करना है. यानी जिस जीएसटी को लेकर ऑटो सेक्टर इस उम्मीद में था की टैक्स कटौती होगी तो शायद हालत बदलेंगे अब वैसी भी नहीं होने जा रहा है.
इससे पहले सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि वे वित्त मंत्री से अनुरोध करेंगे कि ऑटोमोबाइल सेक्टर में कुछ समय के लिए जीएसटी कम कर दें. वैसे वित्त मंत्री को भी अंदाज़ा नहीं है कि अर्थव्यवस्था में सुधार कब तक आएगा. निर्मला सीतारमण ने कहा कि 'मैं इस बारे में अनुमान नहीं लगाने जा रही. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि हर क्षेत्र की चुनौतियों का सामना करें.

फिलहाल ये तो रही सरकार की बात जो मामले पर बॉल एक ऑटो सेक्टर और जीएसटी काउंसिल पर डाल रहा है. अब बात देश की सबसे बडी कार निर्माता कंपनी मारूति सुजुकी की कर लेते हैं. मारूति सुजुकी के चेयरमैन आर सी भार्गव का कहना है कि देश का बैंकिंग सिस्टम, कमजोर निर्णय शक्ति और कारों में एयरबैग्स और एबीएस जैसे सेफ्टी फीचर्स जोड़ने के कारण छोटे सेगमेंट की कारें महंगी होती चली गयी. और साधारण लोगों का इन कारों को खरीदना मुश्किल होता चला गया. जिसका असर ये रहा कि इस सेक्टर में मंदी आती चली गयी और कंपनियों को लगातार नुकसान होता चला गया.

वहीं, भार्गव का ये भी मानना है कि पेट्रोल-डीजल पर ऊंचा टैक्स, रोड और रजिस्ट्रेशन चार्ज ने मंदी को बढ़ाने में आग में घी का काम किया वहीं, भार्गव का ये भी कहना है कि लोग बेशक जीएसटी को इसका कारण मानते हो. लेकिन, जीएसटी कट करने पर भी इस ऑटो इंडस्ट्री को मंदी से बाहर नहीं लाया जा सकता.
क्योंकि ऑटो सेक्टर का एक बड़ा फायदे का सेगमेंट बाइक-स्कूटी चलाने वाले हैं. क्योंकि एंट्री लेवल पर यहीं वो लोग हैं. जो इस सेक्टर की जान हैं. और बैंक पिछले कई साल से लगातार एंट्री लेवल पर कार फाइनैंस करने से डरने लगे हैं. जिसके बाद नयी कारों की सेल में कमी आयी है.

वहीं, GST कटौती को लेकर भार्गव के विचार ऑटो इंडस्ट्री बॉडी SIAM और अन्य कंपनियों के सीईओ से मेल नहीं खाते. इंडस्ट्री लगातार सुस्ती से निपटने को GST कट की मांग कर रही है, लेकिन भार्गव का कहना है कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला.यहां आर सी भार्गव का एक और चौंकाने वाला तर्क है. उनका कहना है कि स्ट्रक्चरल शिफ्ट से मंदी का कोई लेना देना नहीं है. ओला-ऊबर जैसी एप बेस्ट सुविधाओं का बढ़ता इस्तेमाला इसके पीछे की वजह नहीं हो सकता क्योंकि कार खरीदना और चलाना दोनों ही अलग-अलग बातें हैं. उन्होंने कहा, सख्त सेफ्टी व एमिशन के नियम, बीमा की ज्यादा लागत और करीब 9 राज्यों मेंअतिरिक्त रोड टैक्स जैसी वजहों से ऑटो सेक्टर में कन्ज्यूमर सेंटिमेंट बिगड़ा है.
इन सभी फैक्टर्स की वजह से एंट्री लेवल कारों की कीमत करीब 55,000 रुपये तक बढ़ गई है. इस बढ़ी कीमत में 20,000 रुपये का इजाफा सिर्फ रोड टैक्स की वजह से हुआ है.

लाखों नौकरियां गईं
ऑटो सेक्टर में मंदी की मार सिर्फ उत्पादन पर ही नहीं पड़ रही है. मंदी की मार में नौकरियां भी हैं. बड़े पैमाने पर नौकरियां जा रही हैं. सियाम का अनुमान है कि देशभर में कई वाहन शोरूम बंद होने से करीब 2 लाख नौकरियां गईं जबकि ऑटो कंपोनेंट निर्माता कंपनियों में 1 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं. यानी इस सेक्टर में ये अब तक की सबसे बड़ी छटनी कही जा सकती है.

पिछले दो साल से आ रहे थे संकेत
जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि ऐसा नहीं है कि यह गिरावट एकाएक आई है. प्रो अरुण कुमार का कहना है कि बीते दो तीन सालों में अर्थव्यवस्था को तीन बड़े झटके लगे हैं- नोटबंदी, जीएसटी और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं का संकट, इसकी वजह से बेरोज़गारी बढ़ी है।
उनका कहना है कि "सीएमआई के आंकड़े दिखाते हैं कि देश में कर्मचारियों की संख्या 45 करोड़ थी, जो घट कर 41 करोड़ हो गई है, यानी चार करोड़ रोजगार में कमी आई. वहीं, अरुण कुमार का कहना है कि जमीनी हकीकत ये भी है कि ऑटो सेक्टर में सुस्ती की शुरुआत बहुत पहले ही हो गई थी और इस प्रक्रिया में कई कंपनियों पर ताले तल गए, हजारों नौकरियां चली गईं. हरियाणा के गुरुग्राम, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल औद्योगिक क्षेत्र में इसके संकेत पिछले दो साल में देखे जा सकते थे.
मारुति उद्योग कामगार यूनियन (एमयूकेयू) के महासचिव कुलदीप जांगू कहते हैं कि बिक्री और उत्पादन में कमी के कारण मारुति के तीनों प्लांटों में होने वाली सीजनल भर्तियों में 25 फीसदी की कमी है. शिफ्ट कम कर दी गयी है. वे कहते हैं कि ये सुस्ती पिछले छह महीने से चल रही थी लेकिन अभी दो महीने में हालात काफी खराब हुए हैं.

शटडाउन, छंटनी, तालाबंदी- ग्राउंड रियलिटी
आईएमटी मानेसर में एक कंपनी थी एंड्योरेंस टेक्नोलाजीज, जो हीरो और होंडा जैसी दोपहिया वाहन कंपनियों के लिए ऑटो पार्ट्स बनाती थी. एंड्योरेंस कंपनी की ट्रेड यूनियन के ज्वाइंट सेक्रेटरी अमित सैनी बताते हैं कि कंपनी ने 21 दिसम्बर 2018 को शटडाउन कर दिया और एक जनवरी 2019 को लॉकआउट की घोषणा कर दी. 164 परमानेंट वर्कर एक झटके में सड़क पर आ गए. कंपनी ने सारे ठेका मजदूरों का कांट्रैक्ट खत्म कर दिया.

क्या नई तकनीक के विकास से ऊभर जाएगा ऑटो सेक्टर
कयास ये भी है कि अब क्योंकि सरकार का अगला कदम देश में इलेक्ट्रिक कार के सेगमेंट को बढ़ाने का है. ताकि इस क्षेत्र में नई तकनीक को लाया जाए और बेहतर विकल्प पेट्रोल डीजल और सीएनजी के मिलें. वहीं, जानकारों का कहना है कि मौजूदा समय में देश का इफ्रास्ट्रक्चर ऐसा नहीं है कि आनन फानन में इलेक्ट्रिक गाड़ियां इंटरड्यूज करने से इस सेक्टर की मंदी को खत्म कर दिया जा सकता हो. क्योंकि, हर एक नये सेगमेंट को लाने के लिए एक लंबी प्रक्रिया के साथ साथ लोगों के मूढ़ को बदलने का काम भी प्रॉडक्ट को करना होता है. और क्योंकि अभी तक देश में इलेक्ट्रिक कारों को लेकर कोई ऐसा पॉजिटिव सेंटिमेंट भी नहीं है जिसके आधार पर देश की बड़ी कार कंपनियां पूरे परिवेश को ही बदलकर रख दें. क्योंकि बाजार मांग के आधार पर काम करता है. और बाजार मांग की आपूर्ति करता है. ऐसे में नई तकनीक मौजूदा मंदी को मात दे पाएगी ये दूर की कौढ़ी भर है.

लेकिन, सवाल वहीं का वहीं है, कि आखिर ऑटो सेक्टर में आयी मंदी से कैसे बाहर आया जा सकता है जबकि मौजूदा समय में ऑटो सेक्टर में सबसे ज्यादा संभावनाएं तलाशी जा रही थी. देश का ऑटो सेक्टर देश की जरूरत के हिसाब से अभी भी मोटर कारों का निर्माण नहीं कर पा रहा है. ऐसे में इस क्षेत्र की मंदी इस बात का संकेत भी है कि देश में ऑटो सेक्टर को लेकर सरकार की कोई मजबूत पॉलिसी नहीं है और इस सेक्टर को सरकार अभी तक सिर्फ कमाई का ही साधन मान रही थी. वहीं, सच ये भी है कि अब समय आ गया है क ऑटो सेक्टर से जुड़े लोगों को भी गंभीरता से सोचना होगा ताकि इस क्षेत्र का विकास तो हो ही साथ ही दुनिया के साथ कदम से कदम  मिलाकर वो देश में रोजगार उत्सर्जन के साथ साथ देश की आर्थिक ग्रोथ में भी सहायता दे सकें.

Saturday, April 6, 2019

चुनावी रण में मिठास पैदा करने वाली जमीन की कड़वी हकीकत



रवीन्द्र कुमार 

उत्तर प्रदेश की 40 लोकसभा क्षेत्रों में देश की आधी मिठास पैदा होती है। इनमें से आठ लोकसभा सीटों पर पहले फेज के चुनाव भी है। गन्ना किसान धरना प्रदर्शन करने पर आमादा हैं और इस फेज में चुनावों का बहिष्कार करने की बात कह रहे हैं। इसका कारण ये है कि गन्ना किसान पिछली सरकारों से तो परेशान थे ही नयी सरकार से भी बहुत ज्यादा खुश नहीं है। क्योंकि चीनी मिलों पर उनका करीब 12000 करोड़ बकाया है जबकि सरकार ने 14 दिन में पूरे पेमेंट का वादा किया था। 




चुनावी वादा और गन्ना किसानों की अनसुलझी पहेली
चुनाव हैं तो संभव है वादे भी होंगे और मनलुभावन बाते भी होंगी। मेरठ में प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें गन्ना किसानों के बकाये की जानकारी है। वो ताबड़तोड़ यहां वादा भी करते गए कि 6 तारीख तक गन्ना किसानों को उनका पैसा मिल जाएगा। लेकिन, 6 तारीख बीत चुकी है और कुछ को छोड़कर गन्ना किसान बैंक में पैसे आने या फिर मिलने का इंतजार ही कर रहे हैं।

15 लोकसभा क्षेत्र और मिठास में घुलता जहर
पश्चिमी यूपी के 15 लोकसभा क्षेत्र गन्ना बेल्ट में हैं। वहीं, यूपी में 40 लोकसभा क्षेत्रों में गन्ने की खेती होती है। सबसे ज़्यादा गन्ना उत्पादन वाले प्रदेश के इस हिस्से को गन्ना बेल्ट कहते हैं. इनमें सहारनपुरकैरानामुजफ्फरनगरशामलीबिजनौरनगीनाबागपतमेरठगाजियाबादअमरोहामुरादाबादपीलीभीतखीरीशाहजहांपुर और सीतापुर शामिल हैं। इन क्षेत्रों के 50 लाख परिवार और दो करोड़ वोटर गन्ने से मिलने वाली रकम पर ही आश्रित हैं। चीनी मिल भुगतान करती हैं तो किसान अपना घर का काम और शादी व्याह से लेकर कर्जदारी तक चुकाता है। लेकिन, जो चीनी देश के लोगों के मुंह में मिठास घोलती है। वह किसानों के लिए कड़बे जहर जैसी बनी हुई है।




मेरठ, बागपत और मुजफ्फर नगर के किसान हैं नाराज
मेरठ के किसान धीरेन्द्र का कहना है कि उनका बकाया पिछले दिसंबर का है। लेकिन, चीनी मिल देने का नाम नहीं ले रही हैं। और वहीं, हमारी मुलाकात मेरठ के ही ओर दूसरे किसानों से भी हुई हमने उनसे पूछा कि उनका पैसा अभी तक मिला या नहीं। क्योंकि सरकार ने 6 अप्रैल तक की समय दिया था। किसानों ने बताया कि हम भी इंतजार कर रहे हैं। लेकिन, अभी तक तो पैसा आया नहीं। वहीं, हमने ये भी पूछा कि उनका कितना पैसा बकाया है तो किसानों ने बताया कि उनका तीन लाख से लेकर पांच लाख रुपये तक का भुगतान शेष है। जिसके चलते उनके कई जरूरी काम अभी तक रुके हुए हैं। जिसमें शादी व्याह से लेकर बच्चों की फीस और देनदारी तक बकाया है। 
किसान इतने नाराज दिखे कि उन्होंने यहां तक कहा कि अगर समय से पैसा नहीं आया तो वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों का बहिष्कार करेंगे। और वोट नहीं डालेंगे।


गन्ना किसानों पर यूपी में होती राजनीति
आरएलडी अध्यक्ष अजीत सिंह चुनावी रैली करने जब बागपत पहुंचे तो सबसे पहले गन्ना किसानों को ही साधा। अजीत सिंह ने कहा कि योगी जी कहते थे कि 14 दिन में ही गन्ना किसानों का भुगतान हो जाएगा। लेकिन, हाल ये है कि चुनाव सिर पर है और किसान गन्ना भुगतान का इंतजार कर रहा है।


वहीं, यूपी सरकार के मुखिया योगी आदित्यनाथ अपनी हर रैली में गन्ना किसानों के भुगतान की बात करते हैं। लेकिन, चीनी मिल्स पर सख्ती बरतने का दावा करने वाले योगी हकीकत में चीनी मिल्स और भुगतान करने में लगभग वहीं रवैया अपनाए हुए हैं जो पुरानी सरकारों ने अपनाया था। फर्क इतना है कि पुरानी सरकारों में भुगतान के बाद ढिढोरा नहीं पीटा गया और मौजूदा सीएम आधा भी भुगतान करें तो वो चुनावी रैली का हिस्सा तो बनता ही है पोस्टर बैनर में भी छपा दिखता है।
वहीं, पिछले दो साल से एक ही रोना सूबे के सीएम और देश के पीएम अक्सर करते नजर आते हैं। वो आरोप लगाते हैं कि पिछली सपा की सरकार ने गन्ना किसानों की 35000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का बक़ाया हमारी सरकार के लिए छोड़ दिया।





अब इस चुनावी माहौल के बीच आपको लखीमपुर खीरी लिए चलते हैं। ये वो इलाका है जो देश का चीनी का कटोरा भी कहलाता है। और यहां से खीरी में सपा-बसपा गठबंधन की उम्मीदवार हैं पूर्वी वर्मा।

पूर्वी गन्ना किसानों के बीच लोकसभा चुनाव को लेकर अपना और पार्टी का प्रचार कर रही हैं। गन्ना किसानों के बीच जाकर वोट मांग रही हैं। पूर्वी एमबीबीएस हैं और जेएनयू से पब्लिक हेल्थ में पीएचडी भी कर चुकी हैं। वे कहती हैं कि 19 मार्च 2017 तक योगी सरकार के आने से पहले 21577.48 करोड़ का गन्ना खरीदा गया और 15168.07 करोड़ का भुगतान हो गया. तो पीएम कैसे 35000 करोड़ का बकाया बता रहे हैं।

यानी किसानों को जो आंकड़ा दिया जा रहा है या तो वो गलत है या फिर सरकार झूठ बोल रही है। वहीं, पूर्वी वर्मा का आरोप है कि बीजेपी सरकार ने 14 दिन में भुगतान का वादा तोड़ा है।
प्रधानमंत्री तक गन्ना किसानों को सपना दिखा कर चले जाते हैं। लेकिन, सपा – बसपा पर आरोप लगाने वाली सरकार को हम बताना चाहेंगे कि अगर हमारी सत्ता में वापसी होत है तो हम 14 दिन में गन्ना किसानों को भुगतान करेंगे।

खैर ये तो रही चुनाव और चुनावी वादों की बात अब आपको एक नया फरमान जो यूपी सरकार ने दिया है उसकी जानकारी भी दिए देते हैं। यूपी सरकार ने पहले चरण से पहले ही गन्ना किसानों का आधा पैसा यानी करीब 5000 करोड़ रुपये देने का वायदा किया। जिसका इंतजार अभी तक किसान कर रहे हैं। यानी पहले तो तय भुगतान से आधा भुगतान और शर्त ये कि शेष जून तक यानी अगर सत्त में बीजेपी सरकार नहीं आयी तो मामला टाला भी जा सकता है। क्योंकि चुनाव के नतीजे तो 23 जून तक आ ही जाएंगे। और नयी सरकार का गठन हो जाएगा। वापस आए तो भुगतान नहीं तो ठिकरा नयी सरकार के सिर।


कोर्ट से आयी किसानों के लिए राहत की खबर
चुनावी रैलियों और प्रचार के बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट से किसानों के लिए राहत की खबर आयी है। अब गन्ना किसानों को बकाये पर ब्याज भी मिल सकेगा। बकाये पर ब्याज दिए जाने के हाईकोर्ट के पिछले आदेश पर अमल किये जाने की जानकारी यूपी सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में दिए गए अपने हलफनामे में दी है। 



यूपी सरकार ने अपने हलफ़नामे में कहा है कि जो चीनी मिलें फायदे में चल रही हैंवहां से किसानों को बकाये पर बारह फीसदी सालाना की दर से ब्याज दिलाया जाएगा जबकि घाटे पर चलने वाली मिलों से सात फीसदी की दर से ब्याज मिलेगा। यूपी सरकार ने अपने हलफनामे में वित्तीय वर्ष 2012 -13 से 2014- 15 तक तीन सालों के बकाये पर ब्याज का भुगतान कराए जाने की बात मंजूर कर ली है। बकाये पर ब्याज दिए जाने से तकरीबन चालीस लाख गन्ना किसानों को फायदा होने की उम्मीद है। अकेले तीन सालों के बकाये पर ही इन किसानों को दो हजार करोड़ रूपये से ज़्यादा का ब्याज मिल सकेगा। यूपी की पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने चीनी मिलों द्वारा किसानों को दिए जाने वाले ब्याज को माफ़ कर दिया था। गौरतलब है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो साल पहले नौ मार्च  2017 को  आदेश जारी कर गन्ना किसानों के बकाये पर ब्याज समेत भुगतान करने का आदेश दिया था। यूपी की योगी सरकार ने भी किसानों के बजाय मिल संचालकों के हित के मद्देनजर अदालत के इस आदेश पर अमल नहीं किया। इस पर किसान नेता व राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह ने पिछले साल इलाहाबाद हाईकोर्ट में अवमानना की अर्जी दाखिल की। अदालत ने इस मामले में सख्त रुख अपनाया तो यूपी सरकार ने आज हलफनामा दाखिल कर हाईकोर्ट के पिछले आदेश के मुताबिक़ गन्ना किसानों को उनके बकाये पर ब्याज समेत भुगतान कराए जाने की बात कही। अदालत में यूपी के केन कमिश्नर संजय भूस रेड्डी के हलफनामे में कहा गया कि किसानों को अब उनके बकाये पर सात और बारह फीसदी की दो दरों से भुगतान कराया जाएगा। अवमानना याचिका पर जस्टिस सुनीत कुमार की बेंच में सुनवाई हुई। अदालत के दखल पर हुए इस फैसले से गन्ना किसानों को दोहरा फायदा होगा। एक तो उन्हें पुराने बकाये पर ब्याज मिल सकेगा और साथ ब्याज से बचने के लिए मिल संचालक अब किसानों को जल्द से जल्द उनके बकाये का भुगतान करने की कोशिश करेंगे। अदालत में किसानों की तरफ से दलील दी गई कि जब उन्हें बीज -खाद व खेती के उपकरण खरीदने की खातिर बैंकों से लिए गए लोन पर ब्याज देना पड़ता है तो उन्हें अपने बकाये पर भी ब्याज पाने का पूरा हक़ है। यूपी में इस समय 121 चीनी मिलें काम कर रही हैं। जिसमें से 24 चीनी मिलें सहकारी क्षेत्रएक चीनी मिल निगम और 96 चीनी मिलें निजी क्षेत्र की हैं।