Saturday, July 24, 2010

फिर कोई महाभारत क्यों नहीं होता



फिर से कोई महाभारत क्यों नहीं होता
इस देश में फिर से कोई अर्जुन पैदा क्यों नहीं होता....
सुना था “जब जब पाप बढ़ेगा धरती पर लूंगा जन्म में”
चीर हरण द्रोपदी का हो रहा चौराहे पर
धर्म पड़ा है सड़कों पर
पिस रही है मानवता भूख की चक्की में
सुलग रही है आग दिल के जज्बातों में
फिर क्यों कोई कृष्ण पैदा नहीं होता
बूझती आंखों से पड़ा भीष्म
शरशैय्या पर
क्यों कोई धर्मराज
टूटती सांस को नहीं संभालता

Tuesday, July 20, 2010

पीछे छुटते सवाल


चार महीनें और तीन मौत की खबरें
हर मौत पीछे छोड़ती कुछ सवाल?
किस माहौल में जी रहे हैं हम।
खबरों के पीछे दौड़ते हम क्यों बन रहे हैं खबर
काम का दवाब, प्रतिस्पार्धा में बने रहने की फ्रिक
और पत्रकारिता में मौजूदगी की जद्दोजहद।
एक साथ मिलते हैं तो होता है डिप्रेशन
जो कभी दिमाग को फाड़ देता है
तो कभी दिल को।
लेकिन फिर भी रहना तो यहीं हैं।
अपने सबसे प्यारे दुश्मन के साथ
जो चलता है एक कदम आगे
कभी करता है चुगली बॉस से
तो कभी हम साया होकर
उतार देता है नस्तर जिगर में।
नहीं है किसी के पास वक्त भरोसे का...
हर शख्स है परेशान यहां थोड़ा थोड़ा।

Wednesday, July 7, 2010

आम नहीं रहा आम आदमी का फल


“आम” आज आम आदमी का फल नहीं रहा, लेकिन फिर भी “आम” आम है। गरीब अमीर हर कोई आम का मुरीद है।
आम की तारीफ में मलीहाबाद में जन्मे क्रान्तिकारी शायर जोश मलीहाबादी हिन्दुस्तान छोड़ते समय मलीहाबाद के आमों को याद करते हुए कहा था।
आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फुरकत में लहू रोएगी चश्मे मय फरामोश
रस की बूदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवांए जोश-जोश
सुन के मेरा नाम मौसम गम जदा हो जाएगा
एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांये बयां हो जाएगा
ए मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा।
जोश मलीहाबादी ने आम की तारीफ में जो शब्द कहें वह आम के साथ ऐसे जुड़े हैं कि आम की जब कभी भी बात होती है तो जोश मलीहाबादी की बात जरूर होती है। जोश साहब को आम बहुत प्रिय थे। आम क्योंकि फल ही ऐसा है कि वह किसी की नापसंद भी नहीं हो सकता। इसका एक छोटा सा उदाहरण मुल्ला नसरुद्दीन की एक छोटी सी कहानी से मिलता है। एक बार मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने यहां आम की दावत रखी। उन्होंने अपने कुछ दोस्तों को बुलाया। उनमें से एक दोस्त मुल्ला से चिढ़ता था। उसने आम की दावत का मजाक उड़ाते हुए कहा कि देखों मुल्ला तुम्हारे ये आम तो तुम्हारा गधा भी नहीं खाता। मुल्ला ने तुरंत जवाब देते हुए कहा कि हां भाई तुम ठीक कहते हो गधे आम नहीं खाते। मुल्ला की बात सुनकर उनका दोस्त झेप गया। मुल्ला की बात ठीक ही है क्योंकि जो आम नहीं खाता वह गधे से क्या कम होगा। लेकिन आज आम खाना जिस कद्र आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज आम खाने के लिए साधारण आदमी को एक बार सोचना जरूर पड़ता है। मुझे अक्सर आज के दौर में आम खरीदने से पहले किसी शायर की वो लाइन जरूर याद आ जाती है।
अब मैं राशन की कतारों में.... नजर आता हूं।
अपने खेतों से जुदा...... होने की सजा पाता हूं।
बाजार से जब कभी घर को आता हूं।
अपने बच्चों के सामने खुद को शर्मिंदा पाता हूं।

मेरे साथ ही रहता है दुश्मन मेरा


मेरे साथ ही रहता है दुश्मन मेरा
हर पल हर सांस के साथ वह भी जीता है मेरे ही साथ
वह कहीं और नहीं.....रहता है मेरे ही दिल में।
वह बहता है मेरी रगो में लहु बनकर।
मेरा दुश्मन मेरी कहानी पर हर बार हंस दिया हर बार जीत गया।
कई बार कोशिश की के निकाल दूं इस लहु को
मार दूं इस दिल को
लेकिन हर बार उसी पुरानी कहानी ने मेरा दामन थामा
जिसमें एक विधवा पर हवस से भरी दुनिया की नजर थी
दो बच्चे थे जो चौराहे पर खड़े भीख मांगते दिखते थे।
फिर एक दिन एक कोशिश और की मैंने
दुश्मन को मारने की.....
मैंने ललकारा उसे
पूरी ताकत लगाकर पुकारा भी उसे
उसने जवाब मैं बस इतना ही कहा
मैं नहीं तेरा दुश्मन मैं तो वहीं हूं जिसे तू पालता आया बचपन से ही।
तूने ही जन्म दिया मुझे ईर्ष्या के रूप में।
मैं पलता रहा तेरे दिल में और एक दिन लहू बनकर बह चला तेरे शरीर में।
अब बात जब ललकार की आयी है तो चल ये भी कर लें।
तू मार दे मुझे या फिर बहने दे लहूं में इसी तरह।
सुनकर दुश्मन की बात लहु मेरा ठंडा से पड़ा।
एक कोशिश करने की और ताकत जोड़ने तक।