Monday, September 27, 2010

दिल्ली का कोढ़ रंगीन पट्टियों में बंद


एक सर्वे के मुताबिक जो 2004-05 में हुआ था उसके मुताबिक दिल्ली में 635 middle schools, 2,515 primary schools, 1,208 senior secondary schools और 504 secondary schools हैं। दिल्ली के इन स्कूलों में तकरीबन 15 लाख विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं।

इनमें प्राइवेट स्कूल शामिल नहीं हैं।

कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली के सभी स्कूल बंद रहेंगे और इनमें पढ़ने वाले बच्चे पूरे 15 दिन शिक्षा से वंचित रहेंगे। यहां सवाल ये उठता है कि आखिर खेलों के दौरान स्कूल बंद करने की क्या आवश्यकता थी। स्कूलों के बच्चों का इसमें क्या कसूर था कि वह स्कूल ही न जाए। पहले खेलों के मद्देनजर बच्चों के मध्य सालाना इम्तहान पहले हो गए। जबरदस्ती बच्चों को स्लैबस दो महीने पहले ही पढ़ा दिया गया।

दूसरा सवाल ये है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अधिकतर गरीब घरों से ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में परिवार के लोग बच्चों को सरकारी स्कूलों में इसलिए भी भेजते हैं कि उन्हें वहां एक समय का अच्छा भोजन मिलता है जिससे उनके बच्चों की शिक्षा के साथ पालन पोषण ठीक हो रहा है। कम से कम बच्चों को पढ़ाई के साथ एक समय का भोजन तो मिल ही रहा है।

अब 15 दिन इन बच्चों को न तो भोजन ही मिलेगा और न ही शिक्षा। चलो ये भी मान लिया जाए कि अगर 15 दिन भोजन नहीं भी मिला तो क्या फर्क पड़ने वाला है, लेकिन पढ़ाई अगर समय पर नहीं हुई तो उसका असर तो पड़ेगा ही। अब यहां दिल्ली सरकार ये भी कह सकती है कि हम दिल्ली के शिक्षकों को सर्दियों में एक्सट्रा कक्षाएं लेने के लिए कहेंगे। चलो ठीक है सर्दियों में एक्सट्रा कक्षाएं हो जाएगी लेकिन क्या उससे पढ़ाई अपने ट्रेक पर आ जाएगी।

ठीक इसी तरह से दिल्ली मजदूरों को 15 दिन तक दिल्ली में फेरी करने पर रोक होगी। इसमें रिक्शा चालक, सब्जी विक्रेताओं और रेहड़ी वालों को 15 दिन घर में ही बंद रहना होगा। यानी की रोज कुंआ खोदकर पानी पीने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान या तो भूखे मरेंगे या फिर हर दिन पानी पी पीकर दिल्ली सरकार को कोसते रहेंगे। ठीक ऐसा ही दिल्ली के भीखारियों के साथ होने वाला है। दिल्ली के भीखारी 15 दिन सड़कों पर नहीं दिखाई देंगे। यानी कुल मिलाकर दिल्ली के कोढ़ सरकार रंगीन पट्टी लगाकर ढांप देना चाहती है।

Wednesday, September 22, 2010

गम ये नहीं दादी मर गई, डर ये है कि मौत घर देख गई

ये कहावत जब मैंने पहली बार अपने बॉस से एक मुद्दे पर सुनी तो सुनकर पहले तो में सन्न रह गया। कारण शायद ये था कि मेरे घर में मौत हुई थी और मैं उस मौत के गम से बाहर निकलने की कोशिश में था। लेकिन मौत घर देख गई। ये बात सुनकर मेरे एक बार को घुटने कांप गए। क्योंकि कहा जाता है मौत जब घर देख जाती है तो वापस मुढ़कर जरूर आती है।
मौत यूं तो एक सच्चाई है जिसका एक दिन सामना होना ही है। लेकिन मौत का ख्याल आते ही मन में कुछ सवाल तो उठते ही है। मरने वाला ये सोचकर खुश होता है कि चलो यार ये काम भी निपटा और जिंदा ये सोचकर खुश होता है कि चलो यार कुछ दिन औऱ। इसे खुशी कहे या गम, लेकिन ये दोनों ही दिलचस्प मामले हैं। मौत पर यूं तो इस दुनिया में जब से आदमी आया है तभी से वह कुछ न कुछ बोलता ही रहा है। किसी ने इसे अंतिम यात्रा बताया तो किसी ने इसे ही जीवन की शुरुआत कहा।
मेरे घर में मौत किसी शरीर की नहीं हुई थी, इसलिए भी शायद मैं थोड़ा ज्यादा सहम गया था। मेरे घर में मौत हुई थी मेरे अस्तित्व की, मेरे संघर्ष की और मेरे आत्मसम्मान की। मैं जिस संस्थान में कार्यरत था वहां से मुझे एक माह के लिए ये कहकर छुट्टी पर दे दी गई कि मेरी अभी दफ्तर में आवश्यकता नहीं है। लाख कोशिशें करने के बाद भी मैं इस असमायिक मौत को झेल नहीं पा रहा था। कारण चाहे कुछ भी रहा हो जिसमें ये पहला कारण हो सकता है कि मैं इस अचानक विपत्ति के लिए तैयार ही नहीं था। लेकिन विपत्ति आ गई तो मैं परेशान हो उठा। हालांकि मेरी संस्थान में वापसी भी हुई औऱ बहाली भी लेकिन मौत क्योंकि घर देख गई है तो ये सवाल मेरे मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर मेरे बॉस ने जिन्होंने मेरी कई आडे़ समय मदद भी की और मेरे आत्मसम्मान की रक्षा भी। उन्होंने एक बात कही कि यार मौत तय है। किसी का पहले और किसी का बाद में। नंबर सभी का आना है। आज हमारा तो कल तुम्हारी बारी है। लगी है कतार एक के बाद एक सभी की बारी है। ये सुनकर मुझे थोड़ा ढांढस तो बंधा साथ ही इस बात का अहसास भी हुआ कि आज के समय में हम हर दिन मौत से साक्षात्कार करते हैं। फर्क इतना है कभी हम जीत कर आते हैं और कभी हार कर।

सपनों के सौदागर



नोयडा एक्सटेंशन के नाम से धडल्ले से बिक रही है ग्रेटर नोयडा की जमीन। वहीं जमीन जिसपर ग्रेटर नोयडा प्राधिकरण और किसानों के बीच मामला अदालत में है। किसानों ने अभी तक इस जमीन पर प्राधिकरण को अधिकरण नहीं दिया है। वहीं दूसरी ओर प्रोपर्टी बाजार से जुड़े कारोबारी इस बात का जमकर फायदा उठा रहे हैं। वह ग्राहकों को बरगला रहे हैं और धोखे से उन्हें नोयडा एक्सटेंशन के नाम जमीन और फ्लैट बेच रहे हैं। इसका एक कारण ये भी है कि दिल्ली, गुड़गांव और बाहर के लोग जो दिल्ली के आसपास के इलाके में रहना चाहते हैं उनके लिए ग्रेटर नोयडा बेहद खुबसूरत इलाका है। प्रोपर्टी का काम करने वाले दलाल और बिल्डर इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं और उन्हें इस बात का अंदाजा भी है कि ये बेहद बढ़िया लोकेशन है जहां आकार ग्राहक फंसता ही है।
इसी बात का फायदा उठाकर यहां के दलाल ग्राहकों को फंसा रहे हैं। वह नये नये प्रोजेक्ट ग्राहकों को दिखाते हैं उन्हें मंहगी गाड़ियों में लोकेशन पर लेकर जाते हैं और उन्हें गलत तरीके से जानकारी देकर पहले एक मुश्त बयाना राशी या फिर एडवांस बुकिंग के नाम पर मोटा पैसा ऐठते हैं। एक बार ग्राहक जब इनकी पहुंच में जाता है तो उसे निर्माण के लिए समय देते हैं। ये ग्राहकों से कहते हैं कि प्रोजेक्ट की कीमत एक हजार करोड़ रुपये हैं या छोटे दलाल कहते हैं कि प्रोजेक्ट की कीमत सौ करोड़ रुपये है। जैसे ही प्रोजेक्ट की कीमत हम बाजार से उठा लेंगे हम प्रोजेक्ट पर काम करना आरंभ कर देंगे। ये बहाना एक ऐसा बहाना है जिसका ओर है छोर है। क्योंकि ग्राहक कभी इस बात का अंदाजा ही नहीं लगा पाता कि उसके प्रोजेक्टर को कितना पैसा मिल गया है। ऐसे में ग्राहक अपने आपको ठगा से महसूस करता है और जब वह अपना पैसा वापस लेने की बात करता है तो या तो प्रोजेक्टर के ऑफिस पर ताला पाता है या फिर उसके फोन की घंटी तो बजती है लेकिन फिर कभी फोन उठता नहीं है।

Saturday, September 18, 2010

एक कलाकार का अंतिम युद्ध


देश के लिए कला के क्षेत्र में एक कैनवास देने वाला शख्स आज देश से बाहर महाभारत को चित्रों के माध्यम से कैनवास पर उतारने में व्यस्त है।
फिदा और फिदा का कैनवास इस बात पर कभी नहीं झगड़ते कि कैनवास पर उतर कर कौन आ रहा है। कलाकार के मन ने कहा कि चलो ये किया जाए और कलाकार अपनी कूची ब्रश के साथ कैनवास की शान में लकीरे खीचना आरंभ कर देता है।
एम एफ हुसैन को ये अंदाजा है कि महाभारत के कुछ किरदारों पर उनकी भर्त्सना हो सकती है। इसका कारण शायद ये भी हो कि एक कलाकार जब इतिहास के ब्रश से कैनवास पर उतारता है तो वह दिल और दिमाग से किरदार के साथ होता है। वह उस किरदार के साथ जीता है और मरता है। गजगमीनी हो या फिर फिदा के घोड़े। वह आजाद विचरण करते हैं। लेकिन कुछ कला को नहीं समझने वालों को इस बात से परेशानी हो सकती है कि भला किसी किरदार में कलाकार कैसे सांस ले सकता है।
एम एफ हुसैन जब देश में थे तो लोगों को उनके होने या नहीं होने का मतलब मालूम नहीं था। देश के कुछ प्रगतिशील विचारकों को अचानक ही हुसैन की याद तब आयी जब हुसैन को देश में एक पहचान मिलनी आरंभ हुई। उनके द्वारा बनाई गई होली की पेंटिग अनूठी थी। लोगों को इस बात का शायद ही अंदाजा था कि बगैर ब्रश के लिए कैनवास पर रंगों को और प्राकृतिक रूप से पैदा हुई भावनाओं को उकेरा जा सकता है। वह होली के दिन रिक्शे पर सवार हुए और देश के गलियों में धूमने लगे। जिस किसी ने भी उनपर रंग डाला उन्होंने कैनवास को आगे कर दिया। और फिर कैनवास पर वह उतरा जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उनकी इस अनूठी कोशिश से कला जगत में हड़कंप मंच गया। मचता भी क्यों नहीं, क्योंकि फिदा एक नए आइडिया के साथ आये थे। लेकिन हिंदु देवी देवताओं के साथ उनका प्रयोग उनको भारी पड़ गया। उन्हें देश के बाहर भी जाना पड़ा और देश के लोगों की भर्त्सना भी सहन करनी पड़ी। इस बार फिर फिदा हिंदुओं की भावनाओं से खेलने की कोशिश में है। इस बार वह कैनवास पर महाभारत उकेर रहे हैं। कहना गलत नहीं होगा अगर कैनवास पर उन्होंने किरदारों के साथ न्याय नहीं किया तो ये महाभारत अंतिम युद्ध होगा।