Thursday, February 25, 2010

किरदार की कीमत

पत्रकारिता में पत्रकार के किरदार की कीमत क्या हो सकती है? सवाल आपको थोड़ा सा अटपटा लग सकता है। लेकिन पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए ये सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। क्योंकि मौजूदा पत्रकार लगातार इन सवालों से परेशान हो रहा है। उसे अपना किरदार बचाने के लिए जी तोड़ कोशिश करनी पड़ रही है। हालांकि इसके लिए मीडिया के कुछ लोग ही जिम्मेदार हैं, लेकिन ये वह लोग हैं जो वर्षों से मीडिया में हैं और न तो मरने का ही नाम ले रहे हैं और न ही मीडिया से जा रहे हैं। हां मीडिया का सत्यानाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। अगर पिछले 20 साल का मीडिया का आंकड़ा खंगला जाये तो आप पायेगे कि मीडिया में जो छोटे रिपोर्टर या प्रोडक्शन आदि में कार्य कर रहे थे वह लगातार बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं और नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकरे खा रहे हैं, जबकि मीडिया में कुछ नाम न तो आज तक कहीं गये और न ही इन्हें बेरोजगारी का सामना ही करना पड़ा।
अगर ये कहते हैं कि हम काम बेहतर करते हैं तो इनसे बात हाथ में जूता लेकर करनी चाहिए और पूछना चाहिए कि पिछले पांच सालों से इन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में क्या नया काम किया है। जो आज से दस साल पहले था वहीं ये आज भी कर रहे हैं। पिछले पांच सालों में तो इन ..... ने इतना नंगा नाच किया है कि एक भी ऐसी खबर इन्होंने कबर नहीं की जो समाज या पत्रकारिता में मिसाल पैदा कर सके। हां ....ने प्रकाश सिंह की आड़ में इंवेस्टिगेसन जर्नलिज्म को एक दम से खत्म कर दिया है। अगर आजतक बात छोड़ दे तो कोई भी ऐसा चैनल आज नहीं है जिसमें एसआईटी हो। इंवेस्टिगेशन के नाम पर न्यूज 24 तो मुंबई की कॉलगर्ल्स तक ही सीमित रहता है क्योंकि इसे करना सबसे आसान काम है। इंडिया टीवी को इन दिनों भूत पिशाच से सीधी बात करने में ज्यादा दिलचस्पी है न कि सोशल इश्यू पर हां कभी कभार हमारे रजत भाई साहब राखी सांवत के साथ महिलाओं के मुद्दे पर आंखों पर चश्मा लगाये अपनी छोटी छोटी आंखों से राखी को निहारते हुए उनके कम कपड़ों पर अपने दिल की बात अवश्य लोगों के सामने रख देते हैं। जिसे सुनकर भारतीय परिवार में चैनल सर्फ के दौरान दिखने वाले इस कार्यक्रम से अपना जल्द ही बटन दबाकर पिंड छुड़ा लेते हैं। विनोद कापड़ी अब स्टिंग रिपोर्टिंग से नाता तोड़ चुके हैं क्योंकि आजकल वह प्रशांत टंडन के लखनवी अंदाज को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं। उन्हें भी प्रशांत की तरह लगने लगा कि सभी तरह के इंवेस्टिगेशन ओपन कैम से हो सकते हैं और स्टिंग एक बाहियात काम है। शर्म आती हैं मौजूदा खोजी पत्रकारों को अपने इन सीनियर पत्रकारों पर। कभी कभी तो लगता है कि इन्हें बाजार में नंगा करके दौड़ा देना चाहिए। ये किस तरह की पत्रकारिता हो रही है। भूत टेलिविजन पर आ रहे हैं और देश का गरीब आदमी जो सोचता है कि शायद मेरी बात कभी तो पत्रकार उठायेगा या फिर सरकार तक पहुंचायेगा। वह एसी फिटेड ऑफिस में बैठकर देश की पॉलिसी पर बात करते हैं। देश में मंहगाई और भूख से लगातार मौत हो रही हैं, लेकिन चैनल पर दिखाया जाता है कि आज राहुल 17 दुल्हनों से व्याह की बात करेंगे, क्या बकवास है ये। क्या हमारे सीनियर्स का किरदार मर गया या मिलने वाली मोटी तनख्बाह में वह खाक हो गया। अगर आज चैनल्स पर देखों तो दिन में सास बहू और साजिश से घर की महिलाओं को चैनल व्यस्त रखता है ताकि शाम होते ही वह खबर न देखें बल्कि वह टीवी सीरियल देखें जिनकी बात वह दिन में कर चुके हैं। इसके बाद बाजार में क्या नये प्रोडक्ट आये मिनी स्कर्ट में आपकी टांगे कैसी लगेंगी और शार्ट टॉप में कमर की गोलाई कैसी दिखेगी ये दिखाने की कोशिश करते नजर आते हैं। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं इन चैनल के लोगों से की जिस तरह की वह खबर दिखा रहे हैं क्या वैसा ही है हमारा देश। क्या जो वह दिखा रहे हैं वही हो रहा है देश में। अवे ओ मेरे सीनियर्स......सुधर जाओं और होश में आओं और खबर दो खबर।.......देश में आग लगी हुई है। चीनी मंहगी हुई तो तुम्हारे कानों पर जूं नहीं रेंगी। मंत्री जी ने भाषण में साफ कहा कि मंहगाई आ रही है होशियार, आप लोगों ने क्या किया। जी मंत्री जी ठीक कहा बारिश ही नहीं हुई। अबे कभी सोच भी लिया करों मंत्री जी ऐसा क्यों कह रहे हैं। कही लालओं को फायदा पहुंचाने की कबायद तो नहीं हो रही। गेंहूं का तो हमारे देश में बफर स्टाक था कहां गया। चीनी कम थी तो एक्सपोर्ट क्यों कर दी। दालें नहीं थी तो इंतजाम क्यों नहीं किया। मेरे घर में राशन खत्म होता है तो क्या मैं सड़क पर शोर मचाता हूं कि मेरे बच्चें मर जायेंगे उन्हें बचाओं। मैं इंतजाम करने निकलता हूं और इंतजाम करके घर आ जाता हूं। ये कहानी हमने नयी सुनी की इंतजाम मत करों शोर मचाओं और मंहगाई बढ़ाओं। देश के चैनल मंत्री जी की हां में हां मिला रहे हैं। देश का गरीब रिक्शा चालक पुलिस वाले का उसी के सुऐ से कत्ल करता है और अपनी सफाई में आंखों में आंसू भरकर महज इतना कहता है साहब मंहगाई बहुत है और दरोगा जी मेरे रिक्शे का टायर हर दूसरे दिन इस सुऐ से फाड़ देते थे मैं भला हर दूसरे दिन नया टायर कहां से लाता। पूरे दिन की दिहाड़ी 100 रूपये होती है और टायर 500 रूपये का आता है ट्यूब के साथ। घर का चूल्हा शाम को 100 से कम में नहीं जलता। साहब मैंने मना किया दरोगा जी नहीं माने मैंने कहा कि कभी आपने कार का टायर नहीं फाड़ा वह भी तो ट्रेफ्रिक रोकते हैं। लेकिन दरोगा जी नहीं माने तो मैंने गुस्से में उनका सुंआ उन्हें मार दिया। साहब मैंने जानकर नहीं मारा। अगर मेरे सीनियर्स में थोड़ी सी भी समझ है तो समझों इस खबर को और देखों देश में क्या हो रहा है। राहुल शादी कर रहा है और करता रहेगा। राखी की चोली के पीछे क्या है हम गरीबों को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि देश की जनता राखी की चोली के पीछे का नहीं बल्कि अपनी रसोई के पीछे क्या हो रहा है इसे जानना चाहते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता भूत साले टीवी पर आये या नहीं आये लेकिन बजट में मंहगाई का भूत मर जाये इसपर विचार होना चाहिए। किरदार बचाओं किरदार। मत नंगा हो मेरे भाई क्योंकि पत्रकारिता का जब इतिहास लिखा जायेंगा तो आपका नाम उसमें शामिल नहीं होगा। क्या जबाव दोगे जब आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि क्या किया आपने। क्या जबाव दोगे कि प्रकाश पैदा किया।

खबर नौकरी की

भाईयों और बहनों इन दिनों बाजार में एक खबर है कि हिंदुस्तान अखबार में नयी नियुक्तियों की कबायाद चल रही है। अगर आपको इस पर जानकारी हो तो कृपया यहां जानकारी भेज दे ताकि दूसरे भाई और बहनों का फायदा हो सके।

कुर्सी प्रेम

पत्रकारिता में एक चीज जो पत्रकारों को बेहद प्यारी लगती है और जो कभी उनकी रहती भी नहीं है वह है कुर्सी। नौकरी लगते ही पत्रकारों को ये लगने लगता है कि अब इस कुर्सी पर उनका राज हो गया है। इस कुर्सी पर से वह तभी हटेंगे जब उनके पिछवाड़े लात मारकर नहीं हटाया जायेगा।
इसके अलावा कुर्सी से कुछ लोगों को इतना प्रेम हो जाता है कि वह अपने चैनल या अखबार के मालिक की अनाश शनाप बातों को स्वीकार करने के अलावा हर वह कार्य करते हैं जो पत्रकारिता के दायरे से बाहर है। जैसे हमारे बड़े भाई कहते है कि बीसीसीआई देश की सबसे ईमानदार संस्था है। कांग्रेस से अच्छी सरकार कोई नहीं हो सकती और देश को मनमोहन सिंह से अच्छा प्रधानमंत्री और राहुल से अच्छा युवा नेता नहीं मिल सकता। खैर ये तो हमारे बड़े भाई के विचार है। विचार तो किसी के भी किसी भी तरह के हो सकते हैं लेकिन विचार ही तो है जिनसे व्यक्तित्व की पहचान भी होती है। लेकिन हमने भाई से क्या लेना है क्योंकि वह नौकरी तो अपने देश के लोगों को ही देते हैं। चलिए, हम बात कर रहे थे कुर्सी प्रेम की, तो भला भाई का जिक्र क्यों। तो सुनिया साहब भाई को भी कुर्सी से बहुत प्रेम है। भाई पिछले 25 साल से भी ज्यादा समय से इस कुर्सी से चिपके हुए हैं और किसी को पास आने की बात तो दूर की है उसे देखने तक नहीं देते। मुझे तो कई बार लगा कि भाई मर गये तो इनकी कुर्सी को संभालेगा कौन क्योंकि भाई ने आजतक किसी को अपना दत्तक पुत्र घोषित नहीं किया, कहते हैं जो भी हूं मैं हूं। एक दिन किसी ने उनसे कह दिया कि साहब ऐसा भी क्या है इस कुर्सी में जो आप इसे छोड़े ही नहीं रहे, तो भाई बोले। यार........मेढ़क जब तक पोखर में रहता है जब तक पोखर का राजा होता है और जब वह समुन्द्र की ओर जाता है तो वह समुन्द्र में खो जाता है। ये बात मेरी आजतक समझ में नहीं आयी की वह कहना क्या चाहते थे। फिर मुझे लगा कि शायद उन्होंने इतना ज्ञान अर्जित कर लिया हो कि उन्हें और ज्यादा ज्ञान की आवश्यकता ही न हो। फिर लगा कि अगर ऐसा होता तो लोग बड़ी जगह जाकर ज्ञान क्यों अर्जित करते। क्यों ज्ञान अर्जित करने के लिए समुन्द्र मंथन करते। फिर मुझे लगा कि भाई शायद ठीक कह रहे हैं क्योंकि ये भी तो हो सकता है कि पोखर के मेढ़क का टर्रम टू शायद बड़ी शिकारी मछलियों को समझ में न आये। लेकिन इसका कुर्सी से प्रेम एक अजब कम्बीनेशन सा दिखाई दिया। खैर कुछ समय के बाद हमें समझ में आ गया कि बड़े भाई को मौजूदा संस्थान जितने आराम से मोटरकार, फ्लैट और ऐश दे सकता है वह कोई और नहीं देने वाला। इसलिए यहां का कुर्सी प्रेम ज्ञान अर्जन से ज्यादा इम्पोर्टेश रखता है। इसी तरह से पत्रकारिता में कुछ ऐसे लोग है जो साले कुर्सियों से ऐसे चिपके पड़े हैं जैसे भैंस की चुतोड़ों पर पिस्सू चिपक जाते हैं, सालों को जितना छुड़ाओं उतना ही भैसों के चुतड़ों में घुसे चले जाते हैं। ये साले पिस्सू मालिक नुमा भैस का खून पी पी कर मोटे हो रहे हैं और अपनी कुर्सी बचाने के लिए रिपोर्टर और छोटी तनख्वाह पर काम करने वाले लोगों की आये दिन छुट्टी कर देते हैं। साले ये इतने हरामजादे हैं कि अपनी तनख्वाह ये मालिकों से ये कहकर बढ़ावा लेते हैं कि देखिये साहब हमने कंपनी को इस बार इतना फायदा कर दिया। हमने इस साल तो चैनल पिछले साल के बजट से आधे में ही चला दिया। मालिकों को भी यहीं चाहिए होता है। उन्हें इस बात से मतलब ही नहीं होता कि ये साला पिस्सू पता नहीं कितनों का खून चूस रहा है। रही बात छोटे कर्मचारियों की तो उनकी बात भला कौन सुनेगा, क्योंकि इनकी बात सुनी तो फिर मालिक को मालिक कौन कहेगा। हमारे बड़े भाई का दावा है कि वह 10 लोगों का काम अकेले कर सकते हैं। एक दिन एक दिलजले ने कह दिया 10 का छोड़ों आप तो एक का ‘काम’ ही समझदारी से नहीं कर पाये। हालांकि ये बात भाई की समझ में नहीं आयी और न ही हमारे आयी और अगर हमारे आयी भी तो यहां नहीं आयेगी क्योंकि कुछ बाते ऐसी भी होती है जो कही नहीं जाती समझी जाती हैं।

बड़े भाई की तकलीफ

हमारे बड़े भाई की दाढ़ी सफेद होती जा रही है, लेकिन भाई का दिल अभी बच्चा है जी हां थोड़ा कच्चा सा है। इसीलिए वह अपने ऑफिस में काम करने वाली लड़कियों की ओर आज भी उसी अंदाज में देखते हैं जैसे वह आज से 25 साल पहले देखा करते थे। हालांकि भाई 40 का आंकड़ा तो कभी का पार कर चुके लेकिन भाई का दिल है कि मानता ही नहीं। मानेगा भी कैसे आज भाई चैनल चला रहे हैं और जब ताकत हाथ में हो तो भला तिवारी जी की तरह बुढ़ापे में भी मजा लेने से क्यों चूका जाये। लेकिन भाई के साथ एक समस्या है कि भाई आज भी ‘ड’ को ‘र’ बोलते हैं और अंग्रेजी में भी हाथ तंग होने की बजह से कभी कॉपरेट माहौल से रूबरू नहीं हो पाये। हां भाई कोशिश खूब करते हैं और ब्लागर लिखने से लेकर मोबाइल पर जमकर एसएमएस भी करते हैं।
हाय.......... एक तो बढ़ती उम्र का तकाजा ऊपर से बच्चा दिल, नौकरी पत्रकारिता में आखिर आदमी करे तो करे क्या।
खैर भाई के अरमान आंसूओं के रूप में जगह बदल बदल कर निकलते हैं और भाई दिनपर दिन अपनी सफेद दाढ़ी को देखकर रोते हैं।

जो कुछ नहीं होता वह पत्रकार होता है

ये सुनकर आपको बेशक मुझपर थोड़ी खीज हो सकती है लेकिन ये सच है कि जो कुछ नहीं होता वह पत्रकार हो जाता है। इस बात पर हमारे बड़े भाई एक दिन चिढ़ गये और कहने लगे कि ये क्या बात हुई। हमने उनके दर्द को समझ लिया क्योंकि बड़े भाई पहले आई एस और फिर आई पी एस और फिर न जाने कितने एस वाले इम्तहानों में नकारा साबित हो चुके थे और दिल्ली में एक छोटे से अखबार में काम करते हुए अपने मुल्क यानी आप समझ ही रहे होंगे से एक भूमिहार लड़की के पिता से मोटा दहेज प्राप्त करने में 100 फीसदी कामयाब हो गये थे और आजकल पत्रकारिता में झंडे गाढ़े हुए थे। ऐसा वह समझते थे झंडे उन्होंने गाढ़े या उखाड़े ये तो हमें नहीं मालूम लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि इन दिनों वह एक ऐसा चैनल चला रहे हैं जिसे वह अकेले देखते हैं और स्वंय ही चैनल की टीआरपी बढ़ाते हैं। इन्होंने बाकायदा अपने स्टाफ से कहा हुआ है कि घर जाते ही केबल स्टाफ अपना चैनल ही देखें क्योंकि हो सकता है उनके टीवी में टैम का आईसी लगा हो। (टैम – टीआरपी मापने की कंपनी)।
खैर, बड़े भाई को हमारी बात कुछ कड़वी लगी और उन्होंने अपना जूता जमीन पर पटकते हुआ कहा कि चलो तुम बताओं की पत्रकारिता में कौन लोग आ रहे हैं। मैंने मोर्च संभालते हुए कहा सर देखिये पत्रकारिता में जो लोग आपके देश से आ रहे हैं उनमें से ज्यादातर वह लोग है जो पहले आईएस फिर पीसीएस और फिर बैंकों आदि में नौकरी पाने के लिए कम्पीटीशन की दौड़ में शामिल होते हैं और जब वह कुछ नहीं कर पाते तो वह पत्रकारिता में आ जाते हैं। इसका कारण पहला तो ये है कि इन लड़को की आयु 30 का आंकड़ा पार कर जाती है इसलिए इन्हें सरकारी नौकरी तो नहीं मिल सकती। दूसरा हिंदी पत्रकारिता एक ऐसा धंधा है जिसमें दिमाग की कम और जुगाड़ की ज्यादा जरूरत है। क्योंकि जिस तरह की खबर और आजकल के चैनल दिखा रहे हैं उन्हें देखकर नहीं लगता कि एज एन रिपोर्टर कुछ सोचने की जरूरत है। बस माइक पकड़ना आता हो और पीटूसी करने का स्टाइल समझ में आता हो बस हो गयी पत्रकारिता। इतनी बात सुनकर बड़े भाई विभर पड़े और मुझपर चिल्ला कर बोले यार तुम तो करते हो बेकार की बाते। क्योंकि उन दिनों बड़े भाई हमारे बॉस थे तो हम चुप हो गये और उनके चेहरे की ओर देखने लगे। चेहरा देखकर हमें लगा कि भाई थोड़े परेशान हो गये हैं और फिर कुछ देर के बाद अपने देश के दो चेलों से उन्होंने पूछ ही लिया कि क्यों भाई तुम लोगों ने भी क्या कभी आईएस के पेपर्स दिये हैं। दोनों ने ही हां में गधे की तरह गर्दन हिला कर बड़े भाई को जबाव दिया जिसे सुनकर बड़े भाई ने जोर से जमीन पर पैर पटका और कुछ बुदबुदाते हुए कमरे से बाहर हो लिये।

Tuesday, February 23, 2010

जय महामेधा कहते जाओं जेब अपनी भरते जाओं

दिल्ली एनसीआर लोकल न्यूज पेपर्स का गढ कहा जा सकता है। ये वह जगह भी है जहां छोटे पेपर्स खासी पकड़ रखते हैं और एनसीआर की बेहतर कबरेज के साथ अच्छी खबर भी परोसते हैं। लेकिन यहीं पर कुछ अखबार ऐसे भी है जो खबर के लिए कम और इन अखबारों के मंसूवों को पूरा करने के लिए ज्यादा निकलते हैं। इन्हीं में से गाजियाबाद का एक अखबार है दैनिक महामेधा।
दैनिक महामेधा देश के उन अखबारों में से है जो डीएवीपी के आंकड़ों के मुताबिक निकलता तो 60 कापी प्रतिदिन के हिसाब से लेकिन छपता मात्र ढाई हजार ही है और बटता केबल कुछ सरकारी महकमों में। इसके अलावा ये अखबार आपको कहीं ओर नहीं दिखाई देगा। हां इसमें अगर आपकों विज्ञापन लगवाना है तो उसका रेट वहीं है जो देश के दूसरे बड़े अखबारों का है। खासकर के सरकारी विज्ञापनों का क्योंकि इसमें सरकारी विज्ञापन लगाने से सरकारी महकमों से जुड़े लोगों की जेबें खासी गर्म होती हैं तनख्वाह से अलग तनख्वाह का जुगाड़ हो जाता है। इस जुगाड़ में गाजिबाद के कई बाबू दिन रात राकेश मोहन से बातें करते हैं। महकमें के लोग बातें भी क्यों न करे जब कम में ज्यादा फायदा हो तो इसका फायदा भला कौन नहीं उठाना चाहेगा। ये तो रही बात महामेधा अखबार की सोच की अब इस अखबार की भीतरी बनावट यानी सिस्टम पर आते हैं। गाजियाबाद के अशोक नगर में इस अखबार का मुख्य दफ्तर है और सूरजपूर ग्रेटर नोयडा में प्रैस। इस अखबार में आरंभ से ही कई धांधलियां चल रही थी। इसमें पहले शेखर कपूर के व्यक्ति संपादक के रूप में आये जिन्होंने न केवल इस अखबार की नींब रखी बल्कि इस अखबार को एक दिशा भी प्रदान की लेकिन इसे वह ज्यादा आगे नहीं ले जा पाये और अपने लंगोट के कारण काफी चर्चा में रहने के बाद आजकल हिंट का दिवाला निकलाने में लगे हैं। क्योंकि चोर का साथी चोर ही हो सकता है इसलिए शेखर कपूर हिंट में जोर अजमाइश कर रहे हैं। हिंट की चर्चा फिलहाल हम यहीं छोड़े दे रहे हैं लेकिन आगे इसपर चर्चा अवश्य करेंगे। अब बात करते हैं आगे की, महामेधा ने 2006 से लेकर आजतक कई उतार चढ़ाव देखें और इस बीच इसी उठापटक के बीच अखबार के मालिक व महामेधा अर्बन को.ऑपरेटिव बैंक के चैयरमेन की मृत्यु के बाद अब इसकी बागडोर श्री पप्पू भाटी के छोटे भाई राज सिंह भाटी ने संभाली। कहने को तो राजसिंह भाटी जी महामेधा ग्रुप के चैयरमेन हैं, लेकिन अखबार की असल कमान अब राकेश मोहन के हाथ है। राकेश मोहन स्व. श्री भाटी के टुकडों पर पले हैं। इनका बचपन और जवानी श्री भाटी के जूतों में गयी और अब जब भाटी जी नहीं रहे तो श्री भाटी के जूतों की ताकत बढ़ गयी है। राकेश मोहन और इनके परम भक्त राजीव सिंह दोनों मिलकर इन दिनों दैनिक महामेधा में दबाकर पंजीरी खा रहे हैं। दोनों अखबार में काम करने वाले रिपोर्टरों से खबर के साथ विज्ञापन लाने को कहते हैं। पहले ये दोनों कहते हैं कि विज्ञापन लाने के बदले वे इन्हें कमीशन देंगे जब विज्ञापन आ जाता है तो ये कमीशन का पैसा आपस में बांटकर दिल्ली आकर दारू पीते हैं और गुलछर्रें उड़ाते हैं। राकेश मोहन को हर शनिवार को दिल्ली के प्रैस क्लव में देखा जा सकता है जहां वह हमेशा किसी नयी महिला मित्र के साथ होते हैं और महिला मित्र आमतौर पर छुट्टी के दौरान राकेश मोहन का लंगोट उतारकर उनका दिल बहलाती है। इसी तरह से राजीव सिंह है जो महामेधा के उच्च अधिकारी हैं और महामेधा में राकेश मोहन के बॉस हैं। राजसिंह भाटी क्योंकि अपने भाई की तरह आंखों से अंधे और कानों से बहरे हैं तो इन्हें तो अपनी तारीफ के अलावा और कुछ सुनाई या दिखाई नहीं देता। ये दोनों लोग इनके तख्त के चारों ओर सुबह शाम आकार बैठ जाते हैं जहां ये दोनों इनके टट्टे चाटकर इनका मंनोरंजन कर इनसे अपनी गांड में थूकवाते हैं। इतना होंने के बाद ये दोनों मालिक को प्रसन्न करने में कामयाब हो जाते हैं और अखबार की कमान अपने हाथ में ले लेते हैं। कमान हाथ में आते ही पहले इनका शिकार गाजियाबाद ब्यूरों में काम करने वाले सात साल पुराना कर्मचारी विनोद खरे बनता है जो असल में न तो पूरा पत्रकार ही है और न ही कुछ और, लेकिन आदमी बहुत नेक है और हाजिर जवाब भी। राकेश मोहन इनपर अपने दमन का कई बार तीर चला चुके लेकिन अभी तक विनोद खरे उससे बचे हुए हैं। लेकिन आजकल दवाब में आकार ये इनके जुल्म का लगातार शिकार हो रहे हैं और विज्ञापन ला लाकर दे रहे हैं।

कैसे करता है राकेश मोहन दलाली
राकेश मोहन चूंकि पत्रकार तो है नहीं लेकिन पत्रकार होने के दावे खूब जमकर करता है। हर रोज अखबार के माध्यम से राकेश मोहन गाजियाबाद नगर निगम से आने वाली प्रैस विज्ञप्ति पर जो मूल रूप से सरकारी या फिर अजय शंकर पाण्डे के मीडिया सलाहकार ने लिखी होती है पर अपने नाम से अखबार में छपवा देता है। राकेश मोहन दूसरों की जूठन पर अपनी जुबान फेर कर अपने आप को संतुष्ट करता है और दूसरे दिन गाजियाबाद जिला कलेक्ट्रेट पर नवलकांत तिवारी को जाकर दिखाता है और प्रैस मान्यता के लिए अनुन्यय विनय करता है। इतना ही नहीं अखबार में अपने आप को डायरेक्टर के पद पर बता कर लोगों को धमकाता है और फिर उनसे सुविधा शुल्क भी वसूलता है। इतना होने के बाद भी राकेश का दिल नहीं भरता तो वह गाजियाबाद बस अड्डे पर पहुंचता हैं और कोने में खड़े पीपल के पेड़ के नीचे मौजूद पान वाले से फ्री में सिगरेट पीकर व पान मसाला खाकर अपनी सरकारी गाड़ी 800 (मारूति) में अपने चमचे ड्राइवर शिव कुमार के साथ तनकर बैठ जाता है और पान वाले के द्वारा पैसें मांगने पर फटकार लगाते हुए कहता है कि साले हम से पैसा मांगता है जानता नहीं हम कौन हैं। साले तेरी दुकान बंद करवा दूंगा। इतना करने के बाद राकेश का थोड़ा पेट भरता है।इतना करने के बाद राकेश मोहन कलेक्ट्रेट में पिस्टल का लाइसेंस, श्री भाटी जी के लिए गनर, श्री भाटी जी की चोरी गयी कार के बदले जब्ती की कार लेने आदि के कार्यों को करते देखा जा सकता है। जिला कलेक्ट्रेट में इनके साथ गाजियाबाद का महामूर्ख फोटोग्राफर जीतेन्द्र इनके साथ देखा जा सकता है जो दिमाग से कम और पेट से ज्यादा सोचता है और हमेशा भूखा रहता है।
वहीं दूसरी ओर राजीव दफ्तर में ही दफ्तर की सुंदर सुंदर महिलाओं को देखकर अपनी बाहों में न आने वाली तोंद के पीछे से सभी को निहारता है और अपनी गंजी खोपड़ी पर हाथ फेरता रहता है।
अपनी भारी भरकम काया और छोटी सी खोपड़ी में न के बराबर अक्ल का स्वामी राजीव महामेधा में बैठकर जमकर पंजीरी खाने में तेज हो गया है। वह महामेधा की जेब से कैसे पैसे निकाल लेता है इसका पता न तो श्री पप्पू भाटी को लगा और न ही अब उनसे भाई को लग रहा है। लेकिन कुल मिलाकर राकेश और राजीव महामेधा में ऐश की जिंदगी जी रहे हैं और हर शुक्रवार को महामेधा भवन में होने वाले कीर्तन में कहता है, जय महामेधा कहते जाओं जेब अपनी भरते जाओं। जय महामेधा।

Thursday, February 18, 2010

मेरी बात

मेरी बात
पागल की डायरी में अजब गजब किस्सें हैं। कुछ मीडिया जगत के तो कुछ यहां वहां के लेकिन है सभी सच्चे और आंखों से देखें। मेरा एक दोस्त है वह कहता है जब आदमी बहुत ज्यादा बात करने लगता है तो वह पागल होने से पहले की स्थिति होती है। यहां हम आपको बता देते हैं कि हम आलरेडी अपने आपको पागल मान चूके, क्योंकि अगर होश में रहे तो भी पागल ही कहलायेंगे। इससे बेहतर ये है कि अपने आपको पागल मान लिया जाये। मेरी कोशिश ये बिल्कुल भी नहीं रहेगी कि आप मेरी बातों से इत्तफाक रखे। क्योंकि ये मैं क्यों मानू कि जो मैं कह रहा हूं वह सभी पर लागू होता हो, लेकिन इतना तो मैं कह सकता हूं कि जो मैं कहूंगा उसमें एक आग जरूर होगी जो आपके दिलों में आग बेशक न लगा पाये लेकिन इतना जरूर करेगी कि आपको भीतर बैठे उस आदमी को जरूर झकझोर जायेगी जो मेरी तरह सोचता है और इस समाज, दुनिया को समझने की कोशिश करता है। मेरी बातें एक अहसास अवश्य पैदा करेंगी। कहते हैं न कहना जरूरी है, क्योंकि कहने से ही मसले हल होते हैं और कहने से ही आग भी लगती है। कहने से दिल का भड़ास निकलती है कहने से ही समाज में बदलाव आता है।
मेरा एक दोस्त है वह अक्सर कहता है सत्संग करने से इस जीवन को जीने की ललक पैदा होती है और अपने दिल की बात कहने से इस जीवन को समझने की ताकत मिलती है। जीवन जीना जितना जरूरी है उतना ही इसे समझना भी जरूरी है। जब जीवन का हर पहलू कहने और सुनने से जुडा हो तो ये भी जरूरी है कि हम खूब बोले, इतना कि मरने से पहले अंतिम सांसों में ये बात घुटी न रह जाये कि यार ये कहना अभी शेष रह गया। बल्कि अंतिम सांसों के दौरान तो होना ये चाहिए कि ये लगे कि बस यार अब बहुत बोल चूके अब थोडी शांति आवश्यक है और चिरनिद्रा में जाकर असिम शांति को प्राप्त हुआ जाये।
मेरे ब्लॉगर पर आपको पत्रकारिता से जुडे लोगों की खास खबर मिलेंगी। यहां य़शवंत भाई के ब्लॉगर भडास की तरह या उनके बेबपोर्टल की तरह आपको शायद मसाला न मिले लेकिन मीडिया की सच्ची और ईमानदारी से रखी बातों की जानकारी अवश्य मिलेगी। पागल की डायरी बेसिकली एक पत्रकार की डायरी है। इस डायरी में आपको पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रहे अपडेट नौकरियां और पत्रकारिता के क्षेत्र में चल रहे अपडेट जरूर मिलेंगे। यहां पर उन लोगों का भी दिल से स्वागत किया जायेगा जो अपने विचार यहां रखना चाहते है।

धन्यवाद
आपका पागल


पत्रकारिता बनाम कमाई का जुगाड
पत्रकारिता को कुछ लोग समाज की सेवा करना और देश का चौथा स्तंभ भी मानते हैं। ये वह लोग है जिन्हें पत्रकारिता के बारे में जानकारी नहीं है। आज पत्रकारिता केवल कमाई का जरिया है और ऐसा जरिया है जिसमें न तो अक्ल की जरूरत है और न ही मेहनत की। आप अगर ऐन केन प्रकरण से पत्रकार बन गये तो साहब आपकी मौज ही मौज है। शराब और मूर्गें की टांग चूसने के लिए आपको कभी भी पैसा खर्च नहीं करना पडेगा बस आपको थोडा से बेशर्म होना है कुछ हमारे सीनियर पत्रकार लोगों की तरह जिन्हें आप पेज थ्री की पार्टी में आसानी से देख सकते हैं। ये लोग ऑफिस से सिर्फ बाहर तभी जाते हैं जब इन्हें ये पता होता है कि फलां जगह आज मुर्गा और शराब का जुगाड़ है। ये वह लोग भी है जो अब देश के तेज और बहुत तेज चैनलों में सीनियर पोस्ट पर बिराजमान हैं। ये वह लोग भी है जो पत्रकार कम और दलाल ज्यादा हैं। इनके अगर मैं नाम लेना आरंभ करूं तो नाम लिखते लिखते और इनके कारनामें लिखते लिखते मेरा जीवन निकल जायेंगा लेकिन इन ..........दलालों के कारनामों की फेहरिस्त समाप्त नहीं होगी। ये लोग चैनलों में अपनी बेटियों की उम्र की लड़कियों से यार कहकर बात करते हैं और मौका मिलते ही इनका आंखों ही आंखों में बलात्कार करने से भी नहीं चूकते। चैनलों में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं इनसे परेशान रहती हैं लेकिन नौकरी करनी है तो इन.........को सहन भी करना पड़ता है, इसी सोच के साथ यहां काम करने की मजबूरी रहती है और ऐसे दलालों की चांदी। पिछले दिनों ऐसे ही एक पत्रकार के मुंह पर कालिख भी पूती और इनके मुंह पर लोगों ने न सिर्फ थूका बल्कि खगार वाला थूक मुंह भर भरके थूका। ये प्रकाश सिंह नाम के जंतु है तो उमा खुराना फर्जी स्टिंग के मसीहा है। इन्होंने उमा खुराना नाम की महिला को फंसाने के लिए न सिर्फ अपनी जूनियर का जमकर इस्तेमाल किया बल्कि दोनों महिलाओं को ब्लैक मेल भी किया। प्रकाश ने न सिर्फ पत्रकारिता के दामन को तार तार किया बल्कि पत्रकारिता के सबसे पुख्ता हथियार को भी बदनाम कर दिया। हैरानी की बात ये रही की प्रकाश के बारे में सभी कुछ जानते बूझते चैनलों के मालिकों ने प्रकाश को नौकरी दी और अहम जिम्मेदारी भी सौंपी। अब ये जिम्मेदारी क्या सोच कर दी गयी ये अलग मसला हो सकता है लेकिन प्रकाश बाबू यहां भी अपनी आदतों से बाज नहीं आये और एक चैनल में काम करने वाली महिला को जा छेडा,वो तो महिला ने साहस से काम लिया और प्रकाश की लाइट बुझा दी नहीं तो प्रकाश न जाने कितनी गंदगी फैलाते। इसी तरह से प्रकाश के नक्शे कदम पर एक और भाई है जो प्रकाश की राह पर चल रहे है, उम्र से तो ये चालीस का आंकड़ा पार कर चूके हैं तो देश के कई चैनलों में काम भी कर चूके हैं। अपनी सफेद दाढी की चिंता इन्हें न पहले थी और न अब है। पैसा और लड़की के लिए ये कितना गिर जाते हैं इसकी मिसाल हम आपको कुछ इस तरह से देते हैं कि जिस चैनल में ये काम करते हैं वह चैनल ही लेने और देने के लिए देश में मशहूर है। हालांकि साधारण देश का जनता इसे इलैक्ट्रेनिक मीडिया का पंजाब केसरी कहती है। यहां पर भाई का जलवा है। ये यहां पर अपनी सफेद दाढी और मुंह में रजनीगंधा लिए पुरानी जींस और टीशर्ट में लड़कियों को धूरते नोयडा में मिल जायेंगे। यहां पर लड़कियों को अपने खास अंदाज में यार और लखनवी लहजे का जिक्र करते हुए लड़कियों की कमर पर हाथ रखते देखे जा सकते हैं। ये दिल्ली में होने वाली पेज थ्री पार्टी में मिल सकते हैं और कभी कभार किसी डिस्को थेक मे हवस पूरी करते भी देखे जा सकते हैं। जब इनका यहां भी पेट नहीं भरता तो अपनी ....... में उंगली देकर खुजाते हुए ये आपको बंगाली मार्किट में मछली खरीदते हुए मिल सकते हैं। यहां पर ये मछली की ...........सहलाते हुए बडे खुश दिखाई देंगे। यहाँ के बाद ये घर जाते है और फिश पका कर दो पेग दारू के लगाकर पयजामा खोल कर सो जाते है। क्रमश:

mera pariwar

मेरे कॉलेज के साथी


ये मेरे कॉलेज के साथी है, इनमे से कुछ साथ है और कुछ बिछुड़ गए। लेकिन सभी की याद आज भी वैसे ही ताजा है।

Tuesday, February 16, 2010

pagal ki dairy ek aise dairy hai jo is samaj aur is desh ke oues pehllo se judi hai jise hum samaj kehte hai.