Wednesday, November 24, 2021

किस तरह वोट करता है उत्तर प्रदेश का दलित

यूपी में दलितों की राजनीति किस तरीके से बदल रही है और उसका प्रभाव अगले चुनाव में कैसा होने वाला है? आइए जानते हैं। 

राजनीति में हमेशा से नारों का अपना महत्व रहा है। कभी कांशीराम ने नारा दिया, 'ठाकुर बाभन बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएसफोर। तिलक, तराजू और तलवारइनको मारो जूते चार' साल 2007 में उनकी शिष्या मायावती इसके बिल्कुल विपरित नारा देती हैं, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है'  एक साल 2007 का समय था और एक आज का समय है, मायावती ने इसके बाद सिर्फ नीचे की ओर ही सफर किया है। साल 2021 में मायावती एक बार फिर ब्राह्मणों की ओर रुख किया है। ब्राह्मण सम्मेलन बुलाया जा रहा है। सतीश मिश्रा ने एक बार फिर से मोर्चा संभाल लिया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि जिस दलित को अपना कोर वोट मानकर बसपा ये प्रयोग कर रही है, क्या वह उसके साथ हैं? यूपी में दलितों की राजनीति किस तरीके से बदल रही है और उसका प्रभाव अगले चुनाव में कैसा होने वाला है? आइए जानते हैं।


जगजीवन राम नहीं बने प्रधानमंत्री, कांशीराम नेता बन गए

नारों की बात करें, तो एक और नारा भारतीय राजनीति में खूब चर्चित हुआ था। आपातकाल के दौरान कहा गया, 'जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएगी इंदिरा गांधी' जगजीवन राम ही वो नेता हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित पहचान को एक अलग मुकाम दिया। जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्री नारायण, जो अपनी हालिया किताब 'रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व' को लेकर चर्चा में हैं, बताते हैं कि दलित राजनीति में चेतना काम 1930 के दौर में स्वामी अच्युतानंद के समय में ही शुरू हो गया था। शुरुआत में दलितों की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस हुआ करती थी। हालांकि, कांशीराम जैसे नेता अपनी कोशिश कर रहे थे। इसके अलावा, आगरा बेल्ट में कुछ नेता थे, जो दलित की राजनीति कर रहे थे।

दलित राजनीति को समझने वाले एक्सपर्ट बताते हैं कि असली परिवर्तन जगजीवन राम के प्रधानमंत्री ना बनने पर हुआ। दरअलस, 1977 में जब जनता पार्टी जीत कर आई, तो तीन लोग प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह और मोरारजी देसाई। जब मोरारजी के नाम पर मुहर लगी

, तो दलित समुदाय के अंदर रोष आ गया। उस समय को याद करते हुए आज भी दलित रो उठते हैं। उस दिन कई घरों में खाना नहीं बना था। इस नाराजगी को मोबलाइज कर कांशीराम ने एक बड़ा वोट बैंक खड़ा कर लिया, जिसने आगे चलकर मायावती के मुख्यमंत्री बनने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई।

कितना बड़ा है दलित वोट बैंक?

ओबीसी समुदाय के बाद दलित वोट की उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक, यूपी में 42-45 फीसदी ओबीसी हैं, उसके बाद 20-21 फीसदी संख्या दलितों की है। 20-21 फीसदी में सबसे बड़ी संख्या जाटव की है, जो करीब 54 फीसदी हैं। इसके अलावा दलितों की 66 उपजातियां हैं, जिनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिनका संख्या बल ज्यादा नहीं हैं।  इसमें मुसहर, बसोर, सपेरा और रंगरेज शामिल हैं। 20-21 फीसदी को दो भागों में बांट दें, तो 14 फीसदी जाटव हैं और बाकियों की संख्या 8 फीसदी है।

जाटव के अलाव अन्य जो उपजातियां हैं, उनकी संख्या 45-46 फीसदी के करीब है। इनमें पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक करीब 5 फीसदी हैं।  कुल मिलाकर पूरे उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिलें हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है।

 यूपी के दलित नेता

उत्तर प्रदेश में दलित नेताओं की बात की जाए, तो बसपा प्रमुख सबसे बड़ी नेता के तौर पर सामने आती हैं। वह उत्तर प्रदेश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। साथ ही साथ चार बार वह सत्ता का सफर तय कर चुकी हैं। इसके अलावा किसी भी पार्टी के पास इतना बड़ा चेहरा नहीं है। भाजपा के पास सुरेश पासी, रमापति शास्त्री , गुलाबो देवी और कौशल किशोर जैसे नेता हैं। इसके अलावा विनोद सोनकर हैं, जो भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष हैं। कांग्रेस के पास आलोक प्रसाद और पीएल पुनिया जैसे नेता हैं। वहीं, चंद्रशेखर आजाद भी कुछ समय पहले से काफी चर्चा में आए हैं।

किसे वोट करते हैं दलित?

उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा प्रयोग साल 2007 में मायावती ने किया। सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से उन्होंने विधानसभा में 3043 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 274 फीसदी वोट के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही। लेकिन साल 2012 में सोशल इंजीनियरिंग की चमक कमजोर पड़ गई। वोट गिरते हुए 259 फीसदी पर पहुंच गए और बसपा 206 से गिरकर 80 पर पहुंच गई। सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब बसपा को सिर्फ 20 फीसदी वोट मिले और खाता भी नहीं खुला। 2017 में 23 फीसदी वोट के साथ बसपा को सिर्फ 19 सीटें मिलीं, जिनमें बगावत के बाद अब सिर्फ 7 विधायक बचे हैं।

 

चुनावी रणनीतिकार और पॉलिटिकल एक्सपर्ट अमिताभ तिवारी कहते हैं, 'अगर आप आंकड़ों को देखें, तो भाजपा इस वक्त देश की सबसे बड़ी दलित पार्टी है। लड़ाई सिर्फ उत्तर प्रदेश में है।' सीएसडीएस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 24 फीसदी दलितों का वोट हासिल हुआ। वहीं, कांग्रेस को 185 फीसदी, बसपा को 139 फीसदी वोट मिले थे।

अगर आप लंबे समय से दलितों का पूरे भारत में वोटिंग पैटर्न देखें, तो यह कांग्रेस से शिफ्ट हो कर भाजपा की ओर चली गई है। सीएसडीएस की रिपोर्ट्स के मुताबिक, साल 1971 में भाजपा को 10 फीसदी दलित वोट मिलता था, जो साल 2014 तक 24 फीसदी पहुंच गया। बसपा को साल 2004 में सबसे अधिक 24 फीसदी वोट मिले थे, जो 2014 में 14 फीसदी हो जाता है। जबकि कांग्रेस 71 में 46 फीसदी दलित वोट करते थे, 2014 में गिरकर 19 फीसदी हो गया।

गैर जाटव ने पलटा गेम

एक प्रसंग यूपी की राजनीति में दलित परिपेक्ष्य को बड़ा साफ करता है। दरअसल, 2006 में मायवाती से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछा गया कि उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? मायवती ने जवाब दिया- 'मेरा उत्तराधिकारी जाटव ही होगा, उनमें से एक जिन्होंने मनुवादियों के हाथों सबसे ज्यादा जुल्म सहे हैं।कहा जाता है कि यहीं से भाजपा ने गैर जाटव का एक राग पकड़ा, जो अब सुर में बदल गया है।

दलित राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि साल 2012 में जब मायावती विधानसभा का चुनाव हारीं, तो उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने साथ नहीं दिया। लेकिन जब आप आंकड़ें देखेंगे, तो साल 2012 में ब्राह्मण और मुस्लिम दोनों ने बसपा का साथ दिया, लेकिन दलित उनसे छिटक गए। आंकड़ों से देखें, तो मामला बिल्कुल साफ हो जाता है। 2014 में गैर जाटव का 61 फीसदी वोट भाजपा को मिला। वहीं, 11 फीसदी जाटव ने भी वोट किया। ठीक इसके उलट बसपा को 68 फीसदी जाटव और 11 फीसदी गैर जाटव ने वोट दिया है।

यही नहीं, Axix My India डेटा एक और चौंकाने वाले विषय की ओर इशारा करता है। साल 2019 में करीब 60 फीसदी गैर जाटव के साथ 21 फीसदी जाटव ने भी भाजपा को वोट दिया।

आरक्षित सीट का खेल

दलित को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था है। सीट की स्थिति की बात करें, तो यूपी विधानसभा की 403 सीटों में से इस वक्त 86 सीट आरक्षित हैं। इन सीटों पर जिसका कब्जा रहा, वह यूपी की सत्ता पा गया।

साल 2017 में 85 रिजर्व विधानसभा सीट में भाजपा ने

65 गैर जाटव को टिकट दिया था। भाजपा ने 76 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की। जबकि बसपा के खाते में सिर्फ 2 गईं। सुभासपा (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी) 3 और अपना दल ने 2 सीटें जीतीं। 

2012 के विधानसभा चुनाव देखे जाएं, तो सपा ने 58, बसपा ने 15 और भाजपा ने सिर्फ 3 सीटों पर जीत हासिल की थी।

वहीं, 2007 में बसपा 62, सपा 13, भाजपा 7 और कांग्रेस ने 5 सीटों पर जीत हासिल की थी।

गौरतलब है कि  साल 2017 में भाजपा, 2012 में सपा और 2007 में बसपा ने यूपी की राजनीति में परचम लहराया था।

 

हालांकि, अगर ये आंकड़ें सीटों के हिसाब से देखें, तो 9 ऐसी सीटें रही हैं, जहां भाजपा हमेशा से मजबूत रही है। वहीं, सपा 3 सीटों पर लगातार अच्छा प्रदर्शन करती रही है। शाहजहांपुर में कांग्रेस,

तो मिश्रिख बसपा का गढ़ रहा है। हरदोई और लालगंज में हमेशा मुकाबला कांटे का रहा है।

भाजपा के साथ क्यों आया गैर जाटव?

साल 2007 से पहले लंबे समय तक उत्तर प्रदेश में स्थिर सरकारें नहीं रहीं। इसकी बड़ी वजह थी जाति त्रिकोण। सपा के पास यादव, मुस्लिम और अन्य जातियों के कुछ वोट थे

, जो 25 फीसदी के करीब थे। भाजपा के पास सवर्ण और कुछ ओबीसी वोट थे, जो 20 फीसदी के करीब थे। वहीं, मायावती की बसपा की भी यही स्थिति थी। दलितों के वोट के साथ वो भी 20 प्रतिशत के करीब पहुंचने में सफल हो जाती थीं। गेम 2007 में पलटा, जब मायावती ने बहुजन से सर्वजन की राजनीति शुरू की। ऐसे में ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम का एक कॉम्बिनेशन बना, जिससे बसपा को 30.43 मत हासिल हुआ। यहीं से गैर जाटव का मामला शुरू हुआ। क्योंकि इस सरकार में दलितों से ज्यादा ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व मिला।

दलित सुमदाय का अध्ययन करने वाले प्रोफेसर बद्री नारायण बताते हैं कि यह एक लंबा प्रोसेस है। जो आज वोट दिख रहा है, वो आरएसएस के कार्यों की लंबी प्रक्रिया है। दरअसल, आरएसएस में जाति वाला कोई फैक्टर नहीं है। ऐसे में जब वह गैर जाटव यानी कम संख्या वाली दलित जातियों के पास पहुंचे, तो उनके अंदर एक किस्म की छटपटाहट थी। उनको प्रतिनिधित्व देना था। आरएसएस ने यह फीडबैक भाजपा को दिया होगा

, जिस पर काम किया गया। यह कोई एक चुनाव का परिणाम नहीं है। धीरे-धीरे गैर जाटव की छोटी-छोटी जातियों को इकट्ठा करके एक बड़ा वोट बैंक बनाया गया।

उन्होंने अपनी किताब 'फैलिनेटिंग हिंदुत्व: सैफरन पॉलिटिक्स एंड दलित मोबिलाइजेशन' में भी इस बात का जिक्र किया है। उन्होंने अपनी किताब में आरएसएस के कई कार्यक्रमों का जिक्र किया है, जिसके जरिए उन्होंने उन जातियों को अप्रोच किया, जिन्हें ना आवाज मिली, ना पहचान मिली और ना ही सत्ता। धीरे-धीरे आरएसएस ने भाजपा का काम आसान कर दिया।

 

अगर आप पासी जाति का उदाहरण लें। तो इस वक्त भाजपा उत्तर प्रदेश में उदा देवी की मूर्तियां लगवा रही हैं, जो इस समुदाय के लिए काफी सम्मान वाली बात है। इसके अलावा, इस वक्त भाजपा के 23 विधायक और 6 सांसद इस समुदाय से आते हैं। कौशल किशोर को मोदी मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया है। योगी कैबिनेट में सुरेश पासी इस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। साल 2017 में अवध-पूर्वांचल की पासी बहुल सीटों जैसे बाराबंकी की जैदपुर और हैदरगढ़, सीतापुर की मिश्रिख,

हरदोई की बालामऊ और गोपामऊ सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को मिली जीत इशारा करती है कि पासी बिरादरी में भाजपा ने अपनी पैठ बना ली है।

मायवाती हैं बड़ा चेहरा, फिर भाजपा बिना नेता कैसे लड़ रही है?

अगर उत्तर प्रदेश में दलितों के बड़े नेताओं की बात की जाए, तो मायावती के आगे कोई नहीं टिकता। अगर भाजपा को देखें, तो ऐसा कोई दलित चेहरा नहीं है। इस मामले में बद्री नारायण कहते हैं कि प्रतिनिधित्व के लिए मंत्री या मुख्यमंत्री होना जरूरी नहीं है। ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य और पार्टी में पद देकर भी इसे साधा जा सकता है। फिलहाल, भाजपा यही कर रही है। उसे ओबीसी की तरह दलित नेताओं को कल्टिवेट करने की जरूरत है।

वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि भाजपा का फोकस मूलतः ओबीसी पॉलिटिक्स पर है। यूपी में ओबीसी और दलित दो ध्रुव हैं। जहां ओबीसी हैं, वहां दलित नहीं जाएंगे। बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ दलित नहीं जाएंगे। वहीं

भाजपा के पास ओबीसी की नाराजगी झेलने की हिम्मत भी नहीं है। ऐसे में यहां भाजपा के लिए मुश्किलें हैं।

हालांकि, एक्सपर्ट इस बात से अलग विचार रखते हैं। वे कहते हैं कि बसपा लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। गैर जाटव पहले ही भाजपा के साथ हैं। डाटा भी देखें, तो जाटव का झुकाव भाजपा की ओर दिखता है। अगर चुनाव दो तरफा होता है, यानी भाजपा बनाम सपा, तो जाटव भी भाजपा की ओर जा सकते हैं। क्योंकि कोई भी समुदाय पावर चाहता है, जाटव को यह उम्मीद मायावती के साथ नहीं दिख रही है। वहीं, यूपी में ओबीसी खासकर यादव बनाम दलित का नरेटिव रहा है। ऐसे में वह भाजपा में अपनी जगह तलाश सकते हैं। हालांकि, यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा।


क्या चंद्रशेखर आजाद बनेंगे मायावती के विकल्प या होगी बसपा की वापसी?

इस वक्त दलित राजनीति में मायवाती के अलावा चंद्रशेखर आजाद की भी पार्टी दिख रही है। आजाद की पहचान अग्रेसिव राजनीति की रही है। राजनीति को समझने वालों का कहना है कि चेहरा होना और चुनाव में परफॉर्मेंस करना दोनों अलग चीजें हैं। आजाद के पास कोई नरेटिव नहीं है। उन्हें पता ही नहीं है कि वो क्या कर रहे हैं। अगर कांशीराम को देखें, तो वह मंच से पहले कई जातियों के नाम लेते थे, फिर भाई का संबोधन करते थे। उनके पास एक नरेटिव था। आजाद के पास सिर्फ जाटव राजनीति ही दिखती है। फिलहाल, वह एनजीओ जैसा काम कर रहे हैं। इससे कुछ खास फायदा होता नहीं दिख रहा है।

वहीं, एक्सपर्ट ये भी कहते हैं कि आजाद के पास पोटेंशियल है। लेकिन उन्हें अभी बहुजन का पूरा समर्थन हासिल नहीं है। ना ही वह कुछ ऐसा नरेटिव बनाते दिख रहे हैं, जो चुनाव को पलट सके। अगर वह 3 फीसदी भी मत हासिल करते हैं, तो बड़ी बात होगी।

मायावती की वापसी को लेकर एक्सपर्ट कहते हैं कि ब्राह्मण सम्मेलन करने से वोट तो नहीं मिल जाएगा। भले ही ये कहा जा रहा है कि ब्राह्मण भाजपा से नाराज हैं, लेकिन अभी उन्हें कोई विकल्प नहीं दिख रहा है। वहीं, मायावती का भाजपा के बी टीम वाला प्रोजेक्शन भी उनको नुकसान पहुंचा रहा है।


 

बहरहाल, मायवाती एक बार ब्राह्मण का प्रयोग कर चुकी हैं। फिर सम्मेलन कर रही हैं, लेकिन इससे ब्राह्मण वोट उन्हें नहीं मिल जाएगा। भाजपा सरकार से ब्राह्मण नाराज हैं। ऐसे में ब्राह्मण कहां जाएगा। नाराजगी में कई बार समुदाय बदले की भावना से भी रिएक्ट करता है। अगर ब्राह्मण देखेगा कि कहीं राजपूत कैंडिडेट खड़ा है और उसकी लड़ाई समाजवादी पार्टी से है, तो वहां बाह्मण सपा के साथ चला जाएगा। वहीं, जहां बसपा से टक्कर होगी, वहां बसपा को फायदा मिलेगा। जहां कांग्रेस से सीधी टक्कर होगी, वहां कांग्रेस के साथ जाएगा।  

अब देखना ये दिलचस्प होगा कि आने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में दलित बसपा को वोट करता है या नहीं। और देखना ये भी दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश में 2022 में किस पार्टी की सरकार सत्ता पर कब्जा जमाती है। 





















 

Wednesday, September 29, 2021

चरणजीत चन्नी को सीएम बनाकर कांग्रेस ने किए एक तीर से कई शिकार !!

पंजाब में सियासी तूफान

-कैप्टन के बिना आसान नहीं है कांग्रेस की राह

पंजाब के इतिहास में चरणजीत सिंह चन्नी का नाम पहले अनुसूचित जाति के मुख्यमंत्री के रूप में लिखा जाएगा। इससे पहले 60 के दशक में बिहार में भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने थे। बिहार में दलित मुख्यमंत्री बनने के बाद भी दलितों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया और आज भी बिहार में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े, अति पिछड़े हाशिये पर ही है। अब पंजाब में चरणजीत सिंह सिंह चन्नी को लेकर देश की सियासत में दलित नेतृत्व को लेकर बहस छिड़ी है। पंजाब की राजनीति में चरणजीत सिंह चन्नी को लेकर सियासी लोग ये कयास भी लगा रहे हैं कि मौजूदा पंजाब के सीएम सिर्फ कांग्रेस के लिए एक मोहरा हैं। 


कांग्रेस पार्टी ने एक अनुसूचित जाति का मुख्यमंत्री बना कर एक तीर से कई शिकार कर दिए हैं। अपना कार्यकाल पूरा होने से छह महीने पहले ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद बनी अनिश्चितता की स्थिति में कांग्रेस आला कमान ने सबसे पहले पंजाब में एक नये प्रयोग के रूप में पंजाब के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता व  पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ को एक हिंदू नेता के रूप में मुख्यमंत्री बनाना चाहा, उसके बाद एक और जाट सिख नेता व कैप्टन सरकार के कैबिनेट मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा के नाम पर चर्चा चली। मगर जब इन दोनों ही नेताओं के नाम पर आम सहमति ना बनी तो राहुल गांधी और आलाकमान ने तीन बार के विधायक और कैप्टन सरकार के ही दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले  एक मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी(58) को मुख्यमंत्री बना कर सबको चौंका दिया।


कांग्रेस आलाकमान का यह एक ऐसा मास्टर स्ट्रोक था जिससे न केवल पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सहित उनके सभी समर्थक विधायकों व पूर्व मंत्रियों को भी चन्नी के नाम पर अपनी सहमति प्रकट करनी पड़ी बल्कि विपक्षी दलों को कांग्रेस के इस दलित कार्ड के सामने पंजाब में दलित वोटरों के लिए तैयार किया गया एक मुद्दा खोना पड़ा। 


इसके साथ ही कांग्रेस द्वारा चुनाव से पहले एक जाट सिख सुखजिंदर सिंह रंधावा और पंजाब के बड़े हिंदू नेता ओम प्रकाश सोनी को भी डिप्टी सीएम बनाकर विरोधियों के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है।


कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने के इस निर्णय से  पंजाब के 32 प्रतिशत दलित समाज को उनका मुख्यमंत्री देकर आने वाले चुनाव में अकाली बसपा और भाजपा के किसी दलित को उपमुख्यमंत्री बनाने के मुद्दे पर भी सेंधमारी कर दी है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा और अकाली दल दलित को उपमुख्यमंत्री बनाने की केवल घोषणाएं ही करते हैं और कांग्रेस ने तो राज्य को पहला दलित मुख्यमंत्री देकर यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे कितने बड़े दलित हितैषी हैं। 


पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिद्धू ने भी उनके  अपने चहेते चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कैप्टन अमरिंदर सिंह को एक करारी शिकस्त दी। वैसे भी चन्नी ने सिद्धू के साथ मिलकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों में एक अहम भूमिका निभाई है।


बीजेपी और आम आदमी पार्टी भी राज्य में हिंदू मतदाताओं को अपना वोट बैंक मानकर अपनी चुनावी रणनीति तैयार कर रही है। ऐसे में चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने राज्य में ओपी सोनी जैसे पांच बार विधायक रहे बड़े कद के हिंदू चेहरे को उप  मुख्यमंत्री का पद देकर विपक्षी दलों के हिंदू वोटरों को रिझाने के बड़े मुद्दे  को भी हथिया लिया है। यानी एक दलित चेहरे चन्नी को मुख्यमंत्री, जाट सिख सुखजिंदर सिंह रंधावा को उप मुख्यमंत्री व ओपी सोनी जैसे बड़े हिंदू नेता को उप मुख्यमंत्री पद देकर राज्य के सभी वर्गों को खुश करने की कोशिश की है।


चन्नी के सामने हैं चुनौतियां बहुत हैं


कांग्रेस आलाकमान एक दलित चेहरे को मुख्यमंत्री बना कर पंजाब में बेशक इसे अपना एक मास्टर स्ट्रोक मान रही है मगर विधान सभा चुनावों से पहले  कांग्रेस और चन्नी के सामने चुनौतियों की कमी नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि क्या कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे बड़े नेता को दरकिनार कर सिद्धू के साथ मिलकर चलने से चन्नी पंजाब कांग्रेस में होने वाली बगावत को रोक पाएंगे? इसके अलावा जैसा कि पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत ने चन्नी के नाम की घोषणा होते ही यह ऐलान कर दिया कि आने वाला चुनाव पंजाब कांग्रेस नवजोत सिद्धू के नेतृत्व में ही लड़ेगी। उनके ऐसा कहते ही पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने इसका जबरदस्त विरोध करते हुए कहा कि इससे मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी की छवि पर असर नहीं पड़ेगा। इसका यह संदेश तो लोगों के बीच नहीं जाएगा कि चन्नी केवल 6 महीने के लिए ही एक पार्टटाईम मुख्यमंत्री बनाए गए हैं, उसके बाद तो सिद्धू ही मुख्यमंत्री होंगे।


इसके अलावा कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो है कि राज्य में चुनावों में केवल छह महीने का वक्त बचा है ऐसे में चन्नी इतने कम समय में क्या कुछ कर पाएंगे और लोगों की अपेक्षाओं पर कैसे खरे उतर पाएंगे?  इसके साथ ही चरणजीत चन्नी और उनकी सरकार को पिछले पांच साल में कांग्रेस सरकार द्वारा किए गए कामों और जनता से किए गए वायदों को पूरा करने के बारे में भी जनता को जवाब देना पड़ेगा जो कि इतना आसान नहीं होगा।   


कैप्टन के बिना बहुत कठिन है डगर चुनावों की

चरणजीत चन्नी के लिए कैप्टन समर्थित बागी विधायकों को संभालने के साथ-साथ चुनावों में अकाली भाजपा और आम आदमी पार्टी  जैसे प्रमुख विपक्षी दल का सामना कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे बड़े नेता के बिना करना है। अमरिंदर सिंह पहले ही कह चुके हैं कि यदि सिद्धू पंजाब के सीएम बनते हैं तो वे उसका जम कर विरोध करेंगे। सिद्धू को कैप्टन पहले ही इमरान खान और बाजवा समर्थक और राष्ट्र विरोधी तक कह चुके हैं। इसका सीधा सीधा नुकसान सिद्धू और कांग्रेस को आने वाले चुनावों में होगा। यानी कांग्रेस को भाजपा, अकाली, आम आदमी पार्टी  के साथ साथ कैप्टन का भी सामना करना पड़ेगा, जो कि इतना आसान नहीं होगा। किसान आंदोलन के कारण कांग्रेस की जो स्थिति पंजाब में मजबूत हुई थी अब वो सिद्धू कैप्टन के झगड़े के कारण बिखरी नजर आ रही है। 

 

अब कैप्टन के सामने क्या है रास्ता

पिछले 54 साल से राजनीति में रहे पंजाब कांग्रेस के बड़े नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह को चुनावों से पहले यूं दरकिनार करना कांग्रेस के लिए काफी नुकसानदायक सिद्ध हो सकता है। कांग्रेस ने सिद्धू के रूप में अमरिंदर सिंह का विकल्प चुना है जो कि उनके लिए एक जुए से कम नहीं है। क्योंकि कैप्टन शुरू से ही सिद्धू के पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर विरोध कर रहे हैं। कैप्टन ने तो सिद्धू के इमरान खान और जनरल बाजवा के साथ संबंधों को लेकर सिद्धू को देश की सुरक्षा के लिए खतरा तक कह डाला। अब यदि कांग्रेस आगामी चुनावों में सिद्धू को पंजाब कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करती है तो कैप्टन जैसे कद्दावर नेता की बात का कुछ तो असर पंजाब की जनता पर होगा। कैप्टन  की नाराजगी का खामियाजा तो कांग्रेस को भुगतना ही पड़ेगा।


हालांकि अभी तो कैप्टन कांग्रेस में ही हैं और उन्होंने कांग्रेस और विधायक से अपना इस्तीफा नहीं दिया है। मगर उनका चुनावों में सिद्धू के साथ मिलकर चुनावों में जाना लगभग असंभव लगता है। वैसे भी कैप्टन पहले ही कांग्रेस आलाकमान को कह चुके हैं कि उन्हें बहुत अपमानित किया गया, इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी को भी त्याग दिया। अब सवाल यह है कि यदि कैप्टन कांग्रेस के लिए प्रचार नहीं करते और कांग्रेस की ओर से चुनाव नहीं लड़ते तो उनका राजनैतिक भविष्य क्या होगा। कैप्टन पहले ही स्पष्ट तौर पर कह चुके हैं कि वे एक सैनिक हैं और अंत तक लड़ते रहेंगे। यह लड़ाई सिद्धू ने शुरु की है और वे इसे जीत कर ही दम लेंगे। यानी संकेत स्पष्ट है कि वे सिद्धू को पंजाब का मुख्यमंत्री बनने से रोकने में पूरी ताकत लगा देंगे। 



अब यदि कैप्टन अमरिंदर सिंह को सिद्धू को पंजाब का मुख्यमंत्री बनने से रोकना है तो उन्हें किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी में जाना होगा। कैप्टन का कद पंजाब में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में इतना बड़ा है कि चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या आम आदमी जैसा पंजाब का प्रमुख विपक्षी दल, कोई भी पंजाब के महाराजा  कैप्टन अमरिंदर सिंह के स्वागत में पलक बिछाए तैयार है। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद कैप्टन ने इस बात से कभी भी इंकार नहीं किया कि वे किसी अन्य पार्टी में जा सकते हैं। इस सवाल पर उन्होंने केवल इतना ही कहा कि वे अपने समर्थकों, शुभचिंतकों और साथियों से सलाह मशवरे के बाद ही कोई फैसला करेंगे। यानी उनका किसी भी अन्य राजनैतिक दल में जाने की संभावानाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। और यदि ऐसा होता है तो इसका सीधा सीधा खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ सकता है।


कौन  हैं चरणजीत सिंह चन्नी

चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मोहाली जिले की खरड़ तहसील के गांव के रहने वाले हैं, इनका जन्म एक बेहद साधारण दलित परिवार में हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एमए व लॉ कर चुके चरणजीत चन्नी का राजनीतिक सफर 1993 में खरड़ नगर परिषद के पार्षद के रूप में हुआ। वे पंजाब के श्री चमकौर साहिब विधानसभा से तीन बार विधायक रहे। 2015 से 2016 तक उन्हें अकाली भाजपा सरकार के दौरान विपक्षी दल का नेता भी नियुक्त किया गया। मार्च 2017 में उन्हें कैप्टन सरकार में कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर टेक्निकल एजुकेशन व इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग मंत्री बनाया गया। चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब विश्वविद्यालय से   पीएचडी भी कर रहे हैं। चरणजीत चन्नी की पत्नी डॉ..कमलजीत कौर खरड़ में ही एसएमओ के पद पर तैनात हैं।