Wednesday, March 31, 2010

पुराने दिन फिर लौट आये

हाल ही में हमारे पुराने कालेज ने हमें याद किया। ये वो पल थे जिन्होंने मेरी पोस्ट ग्रेजुएट कालेज की यादों को एक बार फिर से ताजा कर दिया। मैं रात में ये सोच कर सो भी नहीं पाया कि कहीं मुझे सुबह कालेज पहुंचने में देर न हो जाये, क्योंकि मैं दस साल के बाद यहां जा रहा था तो मन में एक डर होना स्वाभाविक भी था। डर था, अगर किसी ने पूछा की दस साल के बाद आज आपने क्या पाया तो शायद मेरे पास एक ही जवाब था कि 'जिंदगी में मैंने कमाया बहुत कुछ, इस जिंदगी में मैंने गवाया बहुत कुछ, और सच कहूं तो इस जिंदगी ने मुझे सिखाया बहुत कुछ'। लेकिन शायद ये लफ्ज उन नये छात्रों के लिए ना काफी है जो अपना जीवन आरंभ कर रहे हैं।
खैर मैं अपने परिवार के साथ अपने कालेज पहुंचा। वहां पहुंच कर मेरे बेटे ने मुझ से बड़ी ही प्यारी बात कही, उसने मुझसे अपनी तोतली जुबान में कहा पापा आपका स्कूल बहुत बड़ा है। आप इस स्कूल में पढ़ते हो। उसकी ये बात सुनकर मुझे लगा कि वाकई मेरा स्कूल बहुत बड़ा है क्योंकि ये मेरा स्कूल ही है जिसने मुझे पार्थ, किश्लय (मेरा बेटे) और पत्नी को दिया। ये वही स्कूल है जिसने मुझे जीवन को जीने का अंदाज दिया। मैंने सर उठाकर और भरे गले से अपने बेटे के सर पर हाथ रखकर कहा 'हां बेटा वाकई मेरा स्कूल बहुत बड़ा है'।
इसके अलावा भी एक बात और है जो मेरे स्कूल यानी कालेज को बड़ा बनाती है। हम स्कूल में मात्र किताबों से रटारटाया ज्ञान लेते हैं, तोते की तरह हम रटा मारते हैं और परीक्षा में अच्छे अंक लाकर कालेज की दहलीज तक पहुंच जाते हैं। मेरा कालेज क्योंकि इस लिए भी मेरे लिए महत्व रखता है क्योंकि ये इसने मुझे एक अलग पहचान दी। दुनिया दारी को समझने की ताकत और समाज में रहने का तरीका समझाया। बेशक मैं अभी वह पहचान नहीं बना पाया हूं जो मुझे बना लेनी चाहिए थी. लेकिन मैं अपने घर से पहला पोस्ट ग्रेजुएट लड़का रहा, जो अपने गांव जब जाता था ( आजकल वो कस्बा हो गया है, जहांगीरपुर) तब मैं रास्ते में ही अपनी कमीज की आस्तीने ऊपर कर लिया करता था। मैं जैसे ही अपने गांव के बस स्टैड पर पहुंचता था तो मेरे जानने वाले मुझसे बड़े ही अदब से पेश आते थे। अब वो मुझे "अबे ओ फलाने के लौंडे" नहीं कहते थे। वो कहते थे भइया दिल्ली से आ गया। भइय़ा शब्द दिल्ली वालों के लिए छोटा हो सकता है लेकिन उस आदमी के लिए बहुत बड़ा शब्द है जो गांव देहात और कस्वों में रहने वाला है। भइय़ा का मतलब परिवार का सबसे समझदार और होनहार लड़का जिसे उसका बाप भी भइया ही कहता है। उसमें इतनी प्यार की चाशनी होती है जिसे बयान करना बेहद मुश्किल काम है। खैर मैं भइया हो गया, घर के मामलों पर मेरी राय ली जाने लगी और परिवार में सम्मान की नजर से भी देखा जाने लगा। हालांकि सम्मान पहले भी मिलता रहा लेकिन ये दूसरे तरह का सम्मान है।
हालांकि कालेज में अब बहुत से परिवर्तन हो चूके हैं और यहां के पेड़ और सड़कों के अलावा और कोई हमारी पहचान करने वाला भी बाकी नहीं बचा। हां एक ऑफिस के पुराने कर्मचारी हैं श्री प्रदीप बुद्धिराजा जिनके बाल सफेद हो चले हैं। मैं जब कालेज पहुंचा तो सभी कुछ वही था। कालेज की मंजिले आज भी लड़के लड़कियों की खिलखिलाहट से गूंज रही थी। आज भी कैंटिन में चाय और समोसा पहले लेने की होड़ थी। आज भी पार्कों में युवक युवतियां अपने आने वाले कल के लिए क्यारियों में लगे पौधों से अपने लिए सपनों के पुष्प तोड़कर अपनी अपनी झोली में रख रहे थे। आज भी कुछ लोग अपने सीनीयर्स को अपने हाथ की रेखा दिखा कर अपने भविष्य की बातों को जानने में उत्सुक दिखाई दे रहे थे। सभी कुछ वहीं था जो दस साल पहले था, नहीं था तो वह चेहरा जिसे में कालेज के दिनों में चोरी छिपे अपनी क्लास की ओर आने वाली सीढ़ीयों के ऊपर बने बरामदे में से झांककर देखा करता था और जब वह चेहरा मेरे पास आ जाया करता था तो में शर्मा कर अपनी आंखे झुकाकर उसे मुस्कुरा कर हैलों कहा करता था। मेरी आंखों ने उस चेहरे को कई बार खोजा लेकिन वो चेहरा आज मुझे नहीं दिखाई दिया हां उसका अहसास जरूर हुआ और होता भी क्यों नहीं क्योंकि वह चेहरा आज भी मेरी यादों में ताजा तो है ही।

Friday, March 19, 2010

खामोशी शोर मचाती है


मेरे जीवन में खामोशी शोर मचाती है।
मेरे कान झन्ना जाते हैं सर चकरा जाता है।
मेरे जीवन की खामोशी चीखचीख कर मुझे रूलाती है।
वह कहती है, आखिर क्यों हार गये तुम इस जीवन से।
तुम तो वही युवा थे जो दुनिया बदलने का मादा रखता था। हौसलें बुलंद थे तुम्हारे। फिर क्या हुआ। क्या तुम भी हार गये उनकी तरह जो जीतने के लिए चले तो थे लेकिन जीतने से पहले ही हार गये।
मेरे लाख जतन करने पर भी मेरे मन की खामोशी शांत नहीं होती। वह चीखती ही रही चिल्लाती ही रही।
फिर एक दिन खामोशी टूटी।
खामोशी बोली।
जीतना या हारना मेरे बस की बात नहीं।
वह नियती के हाथ है।
लेकिन ये सही है कि एक साया जो था मेरे साथ वह आज मेरे साथ नहीं है।

Wednesday, March 17, 2010

प्रतिस्पर्धा

जीवन की दौड़ में अनवरत चलने वाली प्रतिस्पर्धा को समर्पित मैं दौड़ा चला जा रहा था। बगैर ये सोचे की ये रेसिंग ट्रैक कहा समाप्त होगा।
मैं दौड़ रहा था उस ट्रैक पर जिसका कोई आदि और अंत नहीं था।
मैं जितना तेज दौड़ता उतनी ही प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती।
मेरे साथी गोली की आवाज के साथ भागे थे मेरे साथ ही, उनमें से कुछ मेरे साथ अब भी दौड़ में शामिल थे और कुछ को मैं पीछे मुड़कर देख नहीं सकता था।
लेकिन दौड़ से पहले सभी दावेदार शानदार थे, सभी दावेदार एक से बढ़कर एक थे।
किसी के भी दौड़ में पीछे छुटने की कोई गुजाइश ही नहीं थी।
हमारे आकाओं को (बॉस) हम पर विश्वास (नौकरी देकर हमें प्रतिस्पर्धा में शामिल किया) था।
आंखों पर बड़े बड़े काले चश्में (लालच) लगाकर हमारी हौसला अफजाई कर रहे थे।
हमें ये लगा की वह हमारी जीत पर हमारे कंधे थपथपा कर हमारी कामयाबी का जश्न मनायेंगे।
जश्न तो वह मना ही रहे थे, क्योंकि हम उनके लिए वह प्यादे थे जिनके सर देकर राजा जंग जीतकर ‘मसीहा’ बनता है।
मैं लगातार अपनी जीतपर खुश था, मुझे लग रहा था कि वह मेरी जीत पर हंस रहा है। लेकिन वह इस बात पर खुश था कि उसका 100 का काम मैं 10 में कर रहा था। वह इस बात पर भी खुश था कि उसका धंधा फलफूल रहा है।
वह ट्रैक के गलियारे में से सिगार फूंकता अपने दांतों को भीचकर हंसता और मेरा नाम लेकर मुझे और तेज दौड़ने को कहता।
वह चीखता कभी चिल्लाता और मुझे अनवरत दौड़ने का हुक्म देता।
मैं भी दौड़ रहा था क्योंकि इस दौड़ से मेरा परिवार चल रहा था।
मेरे बच्चे इस दौड़ के सट्टे से स्कूल जा रहे थे, मेरी पत्नी रोज सिंगार करके मेरे पसीने से लथपथ चेहरे को अपने अंचाल से पूछा करती थी।
सभी कुछ ठीक था लेकिन मेरे शरीर की धमानियां फूलने लगी थी, दिमाग पीछे रह गये साथियों को देखने की कोशिश कर रहा था।
क्योंकि प्रतिस्पर्धा से बाहर निकलने का डर जो था और उम्र के साथ मेरी धमानियां फूल रही थी सांसे टूट रही थी।
मैं अभी सोच ही रहा था कि अचानक ही मेरा आका चिल्लाया (जब पहली बार मैं कामयाब नहीं रहा)।
अबे तेरा ध्यान किधर है ‘हरामखोर’ गधे उल्लू के पठ्ठे।
मैं भौचक्का था अपने आका का ये चेहरा देखकर।
वह अभी भी आंखों पर बड़ा सा काला चश्मा लगाकर मुझे धूर रहा था, उसका सिगार अभी भी जल रहा था। लेकिन इस बार वह अपना जबड़ा भीचकर मुझपर चिल्ला रहा था।
मैंने हाथ उठाकर जब उससे कहा की मेरी धमानियां फूल रही है तो वह तिलमिला गया और मुझपर और तेज चिल्लाने लगा।
मेरी समझ में इससे पहले कुछ आता इससे पहले मैंने अपने पैरों के नीचे कुछ चिपचिपाहट महसूस की।
मैंने ट्रैक को ध्यान से देखा तो एक बदबू मेरे नाथूनों को भेदती हुई मेरे दिमाग को झकझोर गई।
‘मानव रक्त’ ये सोचते ही मेरा दिमाग फटने को हुआ।
मैंने देखा मैं जिस ट्रैक पर दौड़ रहा था वह तो कहीं समाप्त ही नहीं होता था वह गोल था और उसके चारों और मेरे ही जैसे प्रतिस्पर्धियों के आका विराजमान हैं।
इस दौड़ में शामिल हुआ जा सकता था लेकिन बाहर जाने का रास्ता ही न था।
मैं दौड़ रहा था अब भी, मेरा सांस फूल रही थी, मैंने अंतिम बार बगैर ये सोचे की मेरा अंत क्या होगा। मैं फिर दौड़ा पूरा जोर लगाकर।
मैं अभी दौड़ा ही थी कि मेरे पैरों के नीचे कुछ फंसा और फंसता ही चला गया।
मैंने जैसे ही अपने पैरों की ओर देखा, डर से मेरे मुंह से सिसकी निकल आयी और आंखों में खौफ से आंसू।
मेरे पैरों के तले मेरा ही एक साथी रौंदा जा रहा था।
वह प्रतिस्पर्धा में निरंतर दौड़ने से थक गया था और गिर गया था।
वह उठता इससे पहले ही मैंने उसके ‘पेट’(नौकरी) पर अपना पैर रख दिया था।
वह चीखकर कह रहा था कि भाई मुझे बचा लो, लेकिन अपने को विजयी रखने के लिए मैंने उसकी बात ही नहीं सुनी।
वह थककर लहूलुहान होकर ट्रैक पर निढाल होकर गिर पड़ा।
उसके गिरते ही एक के बाद एक प्रतिस्पर्धियों ने उसकी छाती पर पैर रखना आरंभ कर दिया और झुंड उसे रौंदता हुआ आगे निकल आया।
ये झुंड मेरे भी पीछे था, और लगातार मेरी ओर बढ़ रहा था।
मैं उन्हें अपनी ओर इस झुंड को आता देखकर और तेज दौड़ा, लेकिन झुंड के एक युवा प्रतिस्पर्धी ने मुझे पीछे पछाड़ दिया और उसके पीछा आता झुंड अब मुझे रौंदने ही वाला है, मैंने ट्रैक को अब अपने नाथुनों से महसूस किया।
ट्रैक पर मेरे जैसे अनगिनत प्रतिस्पर्धियों का लहू पड़ा था जो ट्रैक को पोषित कर प्रतिस्पर्धा को मजबूती दे रहा था।
वह लहू ही था जो ट्रैक पर फिसलन पैदा करता था और ट्रैक पर मौजूद हर्डल प्रतिस्पर्धियों को टूटे फूटे क्षतविक्षित शरीर थे ।
मेरी जैसे ही ये बात समझ में आयी पीछे की भीड़ ने मुझे रौंदा और मैं कुछ ही पलों में ट्रैक पर बिखर गया।
मुझे प्रतिस्पर्धियों ने रौंद डाला।
मैंने अंतिम दफा अपने आकाओं से हाथ उठाकर मदद मांगी, मेरा हाथ ऊपर उठका देख मेरे आका ने मुझपर गुर्राते हुए देखा और कहा, नालायक हमने तभी से तुझपर से अपनी दया हटा ली जिसदिन तूने पहली दफा ट्रैक पर देखा।
मैं कुछ समझता इससे पहले ही मुझे इस दुनिया की आवाजें आनी बंद हो गयी।
अब मुझे केवल अपने परिवार की आवाजें आ रही थी। मेरा चार साल का बेटा ‘पार्थ’ (अर्जुन जिसने महाभारत युद्ध में अहम भूमिका निभाई) जिसे मैं अपने जीवन के महाभारत के लिए तैयार कर रहा था, वह मेरे आकाओं के रहमों करम पर था। वह उसपर हंस रहे थे और उसके हाथों में गांडीव (कलम) की जगह अपना अध पिया व्हिस्की का प्याला दे रहे थे।
मेरी पत्नी उनके पैरों में थी जिसकी छाती पर उनकी निगाहे गढ़ी थी।
मैं अभी अंतिम सांसे ले ही रहा था कि मेरे आकाओं ने मुझपर रहम किया।
जोर का ठहका लगा कर उन्होंने मुझसे कहा, देखों मेरे गुलाम हमने तुमपर रहम किया।
आज तुम्हारा सपना (हमारा सपना) ये पूरा करेगा।
उन्होंने मेरे बड़े बेटे को जो अभी तक दुनिया के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ था उसे ट्रैक पर उतार दिया।
और तभी एक गोली की आवाज ने भारी सन्नाटा कर दिया।
सन्नाटा जो फैलता ही गया मेरी आंखों की तरह। क्योंकि फिर एक प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गयी थी, नया प्रतिस्पर्धी, शायद नहीं क्योंकि वह भी तो मेरा ही लहू है।

Thursday, March 4, 2010

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मगरमच्छ

मीडिया में अनगिनत मगरमच्छ हैं, इनमें से कुछ तो मीडिया के भीतर ही है और कुछ खुले में विचरण कर रहें हैं। जो भीतर हैं वह नये लोगों को हिकारत की नजर से देखते हैं और जो बाहर हैं वह अपनी नयी नौकरी की तलाश में हैं।

यह लोग नये लोगों के द्वारा की गई इज्जत को चापलूसी समझकर उनका जमकर शोषण करते हैं। ये दोनों तरह के मगरमच्छ ज्यादातर वह पत्रकार हैं जो कुछ नाम कमा चुके हैं और ये समझते हैं कि अब वह इस फील्ड के 'बाबा' हो गये हैं।इनमें चालीस की दहलीज पार कर चुके अधिकतर वह पत्रकार हैं जो युवा महिला पत्रकारों पर अधिक और पुरुष पत्रकारों से थोड़ी सी कन्नी काटते हैं। लेकिन जब इन्हें पता चलता है कि आज शाम की दारु का जुगाड़ लोंडे के पास हैं तो वे इससे भी प्यार से बात कर ही लेते हैं। इस तरह के जीव आपको आईएनएस(INS) के सामने के पार्क और अधिकतर प्रैस क्लब में विचरण करते मिल जायेंगे। आईएनएस के सामने वाले पार्क में शाम के समय आठ दस झुंड में ये लोग मिल जाते हैं। इनमें से अधिकतर वह बेरोजगार पत्रकार होते हैं जो यहां काम कर रहें पत्रकारों से अपनी नौकरी की सिफारिश या फिर किसी अखबार अथवा इलैक्ट्रोनिक मीडिया के दफ्तर में अपनी गोटी सैट करने आये हुय़े होते हैं।
यहां पर इन्हें ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो नये होते हैं और जिनके लिये आईएनएस किसी हज से कम नही होता। नये लोगों को लगता है कि आईएनएस ही एक मात्र ऐसी जगह है जहां से उन्हें काम या फिर इस क्षेत्र में ऊभर रही नयी संभावनाओं की जानकारी मिलेगी। ये ठीक भी है, लेकिन पुराने लोग इसी बात का फायदा उठाकर नये युवा पत्रकारों का शिकार यहां करते हैं। पहले ये उसे अपनी जेब से एक दो बार चाय पिलाते हैं। पत्रकारिता पर लंबे लंबे भाषण देते हैं। चूंकि इन्हें कोई और काम तो होता नहीं है इसलिये ये अपनी तारीफ के कसीदें भी गढ़ने से यहां पर बाज नही आते। इसके बाद इनका नये लोगों को फंसाने का काम आरंभ होता है। ये पहले उससे उसका फोन नंबर और फिर धीरे धीरे बड़े ही प्यार से उससे अपनी चापलूसी करवाते हैं। वह इससे कुछ इस तरह से बात करते हैं जैसे सारी दुनिया के पत्रकार इनके चेले हैं और ये गुरू। अब ये गुरू घंटाल इन नये लोगों से कुछ छोटी स्टोरी करने के लिए या फिर कोई रिसर्च का काम करने के लिए कहते हैं। युवा पत्रकार को लगता है कि उसकी परीक्षा शुरू हो गयी। वह लाइब्रेरी में घंटों बैठकर रिसर्च करता है और एक दो दिन बाद गुरू घंटाल को सौप आता है। बस फिर क्या गुरू खुश, दे डालते हैं चेले को आर्शीवाद। बेटा आपने काम बढ़िया किया। देखना ये जल्द ही छपेगा। फिर वह छपता भी है, लेकिन गुरू घंटाल के नाम से। ऐसे गुरू घंटालों ने अपने घरों में भी एक दो पीसी लगाकर अपनी प्रैस खोली हुई है।

ये नये लड़को से काम करवाते हैं और उसे अपने नाम से धड़ाधड़ छपवा कर मोटा पैसा कमाते हैं बदले में ये युवा पत्रकार को ये कहकर की अभी तो आप काम ही सीख रहें हैं। इसे ये प्रत्येक लेख के सौ या फिर ज्यादा से ज्यादा दो सौ रुपये थमा देते हैं। इन गुरू घंटालों में वह पत्रकार हैं जिनका काम फ्रीलांसर के रूप में देश के कुछ प्रमुख अखबारों में छपता रहता है। ऐसे लोग अगर आपको मिल जाये तो इनके सामने से ऐसे गायब हो जाना जैसे गधे के सिर से सिंग। इसी तरह से कुछ मोटे दारूबाज पत्रकार आपको शाम के समय अपनी 'गोटी सैट' करने प्रैस क्लब आते हैं। ये वह पत्रकार होते हैं, जो इधर उधर से कमा चुके हैं और मोटा कमाने की चाह में यहां आते हैं। ये दारूबाज यहां बैठकर ये सुनिश्चित करते हैं कि किस चैनल में हमारी दाल ठीक से गल सकती है और कौन से चैनल का मालिक साल दो साल के लिये उनके द्वारा ठीक प्रकार से बेवकूफ बन सकता है। यह प्रैस क्लब में बैठकर ये भी तय करते हैं कि किस चैनल के मालिक को उसी के दफ्तर में बैठकर कितना 'काटा' जा सकता है। ये वह लोग होते हैं जो अक्सर अपने आप को थोड़ा सा बेकार में ही व्यस्त रखते हैं। ये आपको दिल्ली की हर उस पार्टी में मिल सकते हैं जहां मुफ्त की दारू और मुर्गा मिलता हो। इनका दिल महिलाओं के प्रति नरम होता है। इन्हें अगर कोई महिला युवा पत्रकार बात कर लें तो ये उनसे चिपक ही जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है जीवन में मैक्सिमम एन्जाय और वह भी फोकट में।ये नये लोगों को उपदेश खूब देते हैं लेकिन कभी सही रास्ता नही बताते।

यह हमेशा अपने जुगाड़ में रहते हैं और नये लोगों को हमेशा आत्मबल गिराते रहते हैं। उनका विश्वास तोड़ते रहते हैं। ऐसी बाते सुनाते हैं कि कोई कमजोर दिल का युवा हो तो बेचरा आत्महत्या ही कर ले। ये नये लोगों को इतना डिप्रैस करते हैं कि वह या तो इस फील्ड को छोड़ने का मन बना लेता है या फिर ये मानने लगता है कि उसने जीवन की सबसे बड़ी गलती पत्रकारिता में आकार कर दी। इनमें से कुछ लोग जो चैनलों में काम करते हैं महिलाओं की इज्जत से भी खूब खेलते हैं। अभी हाल की ही मैं बात करू तो कुछ ही समय पहले लगभग छह महीने पहले देश के एक प्रमुख चैनल के रिपोर्टर के खिलाफ एक युवा पत्रकार ने आरोप लगाया कि, फलां आदमी ने मुझे पिछले छह महीने से यहां नौकरी का झंसा दिया हुआ है और वह पिछले छह महीने से मेरी आबरू से खेल रहा है। इस बात को सुनकर चैनल के बड़े अधिकारियों को बोलती बंद हो गयी। क्योंकि भाई जान पहले भी कई बार ऐसे मामलों में नाम कमा चुके थे। इस बात को जो भी कोई सुनता वह यही कहता, भाई जान के लिये ये कौन सा नया काम है। यह तो वह हर छह महीनें में करते हैं। लेकिन युवा महिला पत्रकार भी हार मानने वाली नही थी। उसने भाई जान के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज करवाने के कोशिश की, लेकिन भाई जान का नाम ऐसा है कि अपने देश की पुलिस भी नाम सुनकर सन्न रह गयी। मामला चैनल के प्रमुख लोगों तक पहुंचा, लेकिन ऊपर के लोग अगर रिपोर्टर के खिलाफ जाये तो उनके चैनल से एक ऐसा चेहरा कम होता है जिसके बल पर चैनल पूरे बाजार में एक टांग पर कूदता फिरता है। अब चैनल क्या करे, तो उसने वही किया जो अक्सर होता है। जब शिकारी शेर का शिकार नही कर पाता तो अपनी झेप मिटाने के लिए साले गधे का शिकार कर देता है। इससे दो फायदे होते हैं, एक तो गधे को मुक्ति दिलाने का भाग्यफल शिकारी को मिलता है। दूसरा गधे का शिकार करने पर कोई कुछ नही कहता। इसे एक्सीडेंट या गधे की शोर मचाने की आदात के बदले दी जाने वाली सजा के प्रावधान में जोड़ा जा सकता है। बाद में यह भी कहा जा सकता है कि साला गधा था, काम करना आता ही नही था। हम तो डंडे से काम करवाया करते थे। अब साले को सही रास्ता दिखा दिया। इस तरह से चैनल की खाल भी बच गयी और रिपोर्टर की शान को भी बट्टा नही लगा। कुछ दिनों की गहमा गहमी रही फिर सभी कुछ शांत, मामला रफा दफा।हालांकि बाद में सुनने में आया कि इस पीड़ित पत्रकार को एक नये चैनल में भाई जान ने काम भी दिलवा दिया। लेकिन काम के बदले युवा महिला पत्रकार को कितना अपमान सहना पड़ा इसका अंदाजा हम तो कम से कम नही लगा सकते। लेकिन भाई जान हैं कि मानते ही नही। अब सुना है कि भाई जान एक और युवा एंकर के साथ जीभर कर प्रेम का पान कर अपनी आत्म को तृप्त कर रहें हैं। इन्हें अक्सर चैनल की लिफ्ट में देखा जा सकता है। वैसे ऐसे किस्से हर एक चैनल में होते हैं। यहां भी है तो हमें क्या परेशानी है भाई। लेकिन एक बात तो है कि 'मीडिया का लुच्चा और घर का चोर' साला कभी हाथ नही आता। कारण बड़ा ही साफ है, ये दोनों ही ऊंची आवाज में बात करते हैं। असल में तो बात यह है कि मीडिया में जो एक बार चल गया वह अपने आपको "बाबा" मानता है।तो भाईयों आप को और बड़े मगरमच्छों की जानकारी देते हुए मैं आगे बताता हूं कि मीडिया में केवल ऐसे ही लोग नही है जो महिलाओं की इज्जत से खेलते हैं ऐसे भी लोग हैं जो समाज का खुले में चीर हरण कर देते हैं। यह लोग ऐसे हैं जिन्हें आप एक नजर से पहचान नही पायेंगे।

ये ऐसे लोग हैं जो मीडिया में हैं ही केवल गंद फैलाने के लिए। ये वह लोग हैं जो शार्टकट से उंची जगह पहुंचे हैं औऱ वहां रहने के लिए किसी भी तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते हैं। यहां ऐसे भी लोग है जो आपको दिखने में बेहद सभ्य लग सकते हैं, लेकिन वह इतने कमीने हैं कि आप उनकी सोच तक पहुंच ही नहीं पायेगें। अब हाल ही का एक वाक्य में आपको सुनाता हूं। मेरे एक दोस्त हैं। अच्छा मेरे बहुत से दोस्त हैं इनमें ज्यादातर वह हैं जिनका जिक्र में यहां जरूर करने वाला हूं। ये दोस्त मेरा ऐसा है जो दिखने में बिल्कुल सतीश कौशिक जैसा है। फर्क केवल इतना है कि सतीश कौशिक मात्र कलाकार है और ये कलाकारों का भी कलाकार है। इन दिनों आप इन्हें आजतक के कार्बनकापी चैनल पर देख सकते हैं। अब यार हम से ये मत पूछना कि आजतक की कार्बनकापी कौन सा चैनल है। पहले ही हम इतने पंगे ले रहें हैं अब कुछ से तो पंगा नही ही लेंगे। खैर ये यहीं पर पाये जाते हैं और देखा गया है कि ये चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिये आरूषि का मोऱफ्ड किया हुआ एमएमएस चलवा रहें थे। मेरी समझ में ये नही आता कि बगैर किसी सबूत और ठोस प्रमाण के ये आदमी किसी के
आत्मा पर कैसे चोट मार सकता है। पहले ये चैनल के वरिष्ठ लोगों से एक्सक्लूसिव खबरें देने का झांसा देता रहा। यह कोई अच्छी खबर तो कर नही पाया हां आरूषि की हत्या को जरूर भुना गया। शर्म आनी चाहिए ऐसे पत्रकारों को जो अपने अधकचरे ज्ञान से इस क्षेत्र में गंदगी फैला रहें हैं। ये साले वह मगरमच्छ हैं जो समाज को भी गंदा कर रहें हैं और पत्रकारिता को भी।अब भाई लोग लगता है मैं तो भावूक हो गया। क्या करुं भाई लोगों इन दिनों कुछ चैनलों के द्वारा जो बदतमीजी मैंने आरूषि के मामले में होती देखी है इससे तो ये लगता है कि कुछ ही दिनों में ये 'बाइट सोल्जर' साले हम जैसे नये लोगों की बजा देने वाले हैं। क्योंकि इन्हीं को देखकर आने वाला समाज इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की भूमिका तैयार करेगा। वैसे भी आजकल पत्रकारों को 'दलाल' का पद तो मिल ही गया है। अब तो ये देखना है कि इस तमगे पर और कितने तमगे लगने बाकी हैं।

आंखों देखी -3

यूं तो उन दिनों की आंखों देखी में ऐसा बहुत कुछ था जिसे में अपने आने वाले उन पत्रकार साथियों का बताना चाहूंगा जो आंखों देखी संस्था में जाना चाहते हैं। लेकिन मैं यहां केवल उन घटनाओं को सामने रखना चाहूंगा जो मेरी आंखों के सामने ही घटित हुईं। हमारे असाइनमेंट इंचार्ज होते थे श्री दुष्यंत कुमार जी, वह इन दिनों दैनिक हिंदुस्तान में कार्यरत हैं। आंखों देखी में हमारे एक और इमिडियेट बॉस होते थे जो स्टोरी फाइनल किया करते थे और उन दिनों शायद प्रोग्राम हेड भी थे। अनंत मित्तल साहब। मेरी अनंत मित्तल जी से ज्यादा बातचीत नहीं हुई और ना ही उन दिनों भी होती थी। लेकिन स्टोरी चूंकि वही फाइनल किया करते थे तो एक दो बार उनसे भी मैंने डांट खाई है। खैर वह सीखने के दिन थे और उन दिनों सभी सीनियर अपने जूनियर्स को डांटते ही है जैसा कि दुनिया का दस्तूर भी है और नियम भी। अनंत मित्तल और दुष्यंत उन दिनों एक दूसरे के काफी गहरे दोस्त हुआ करते थे शायद अभी भी हैं। आंखों देखी में चूंकि ये दोनों ही बड़े पद पर थे तो मैडम का प्यार भी और दुत्कार भी इन्ही पर ज्यादा था। मुझे याद है दुष्यंत जी और मित्तल साहब को जब तनख्वाह नहीं दी गई और उन्हें आंखों देखी से रूखसत किया गया तो शहजाद के चेहरे पर बड़ी ही कुटिल हंसी थी। वह हमसे बोला कि चले गये 'साले' अपने आप को बहुत बड़े पत्रकार समझते थे। मैं यह बात इस दावे से भी बोल रहा हूं क्योंकि उस दिन दिनेश पाठक जो आज तक आंखों देखी में अपनी ऐढ़िया रगड़ रहें हैं वहीं मौजूद थे। दिनेश पाठक का तारुफ ये है कि दिनेश पाठक जी आज से छह साल पहले तक गंजे हुआ करते थे। इनके मुख के भीतर कुबेर की गोली हमेशा लगी रहा करती थी और जब भी मौका मिल जाया करता था यह फ्री की चाय जो अक्सर शहजाद मंगवाया करता था पी लिया करते थे। दिनेश पाठक ने अभी दो साल पहले शादी के बाद ही अपने सर पर नकली बालों की खेती करवायी है। सुना है उनकी बीबी को उनका गंजा सर अच्छा नही लगा करता था तो उन्होंने इसी के चलते अपने सर पर बालों की खेती करवा ली। खैर हम बात कर रहें थे दिनेश के तारूफ की तो दिनेश मेरा अच्छा दोस्त हुआ करता था लेकिन मुझे हमेशा से ऐसा क्यों लगता रहा कि दिनेश के शरीर में पहले कभी रीढ़ थी और ही आज है। वह शहजाद का जाने कैसे और कब इतना बड़ा चेला बन गया कि पूरी मीडिया को आज तक कभी चमचों की मिसाल देनी होती है तो वह दिनेश पाठक की दी जाती है। कहा जाता है साला चमचा हो तो दिनेश पाठक जैसा हो जिसे जितना भी दुत्कारों शाम को आकर मालिक के पैर चाटेगा ही चाटेगा। अब इस लेख को पढ़ने के बाद बेशक वो मेरा दोस्त तो रहेगा नही लेकिन कम से कम उसे अपनी छवि जरूर दिखाई देगी। अगर ऐसा हो जाये तो मेरे लिये ये भी संतोष की बात होगी क्योंकि उसे कम से कम अपनी असल शख्सियत का तो अहसास हो जायेगा और वह आंखों देखी से बाहर आकार देखने की कोशिश करेगा। अब हम वापस आते हैं दुष्यंत और अनंत पर। दुष्यंत जी और मित्तल साहब की नौकरी छोड़ दी या छुड़वा दी गई। मैडम का कहना था कि इन दोनों आदमियों को काम करना नहीं आता यानी स्टोरी लिखनी नहीं आती। ये मैडम ने किस आधार पर कहा ये बात वहीं अच्छी तरह समझा सकती है। क्योंकि मैडम के लिये कौन सी स्टोरी सही है और कौन सी गलत इसका अंदाजा आंखों देखी में आज तक कोई नही लगा पाया तो हम और हमारे ये दोनों शो-कॉल्ड बास कैसे लगाते। तो दोनों ही लोगों को रुखसत कर दिया गया और इनकी तनख्वाह भी नही दी गई। बैसे मैडम का ये रुल भी है कि वह जब कभी भी किसी से नाराज होती है तो उसकी तुनख्वाह वह किसी भी हाल में नही देती, चाहे फिर कोई उनका बीस साल से पुराना ड्राइवर हो या फिर नया रिपोर्टर। वह सभी को एक ही तराजू में तौल देती हैं। ऐसा इसलिये भी है क्योंकि मैडम को आजतक देश में कोई अपने आप से बेहतर पत्रकार दिखाई ही नही देता। दुष्यंत जी को जब जवाब दिया दिया गया तो हमने भी अपने रास्ता खोजना आरंभ कर ही दिया था। उन्हीं दिनों दुष्यंत जी और मित्तल साहब ने अपनी तनख्वाह लेने के लिए एक कोर्ट से नोटिस भी भेजा था जिसका जवाब मैडम ने आज तक नहीं दिया। अगर दिया होता तो दुष्यंत जी को अपनी सैलरी मिल गई होती। हालांकि मेरे दोनों सीनियर्स ने बाजार में यही कहा कि हमने अपने पैसे ले लिये, लेकिन शहजाद ने हमे जो बताया वो कुछ इस तरह से है। अगर ऐसे मैडम हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को पैसे देने लगी तो बस चल ली आंखों देखी। उन्होंने आज तक अपने बीस साल पुराने ड्राइवर को तनख्वाह समय पर नही दी वह इन्हें कल के काम करने वाले भूक्खड़ पत्रकारों को पैसें दे देंगी। मित्तल साहब तो कई बार ये भी कहते पाये गये कि उन्होंने मैडम से माफी मंगवा ली जवकि हकिकत ये है कि मैडम ने मेरे इन दोंनों सीनियर्स को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद इन लोगों से कभी फोन पर भी सही से बात नहीं की। ये बाते हमें शहजाद से ही पता चला करती थी। वहीं सुबह हमें सारी बाते बताया करता था। हालांकि इसका आज मेरे पास कोई सबूत नहीं है लेकिन ये सच है कि शहजाद हमें पल पल की खबर दिया करता था और वही हमें बताया करता था कि आज क्या हुआ कल क्या होगा। हालांकि वह तो इसलिये बताया करता था कि इसमें उसे लगता था कि ये मेरी शान है। वह इसलिये भी हमें बताया करता था कि हमें हमेशा ये याद रहे कि उससे पंगा लेने वाले का वह क्या हाल करवा सकता है। क्योंकि जिस तरह से वह मित्तल और दुष्यंत जी की बात किया करता था उससे तो यही लगता था कि मैडम फोन पर ही दोनों की ठीक तरह से क्लास ले ही लिया करती होंगी। खैर हर व्यक्ति की सोच अलग होती है स्वाद अलग होता है और पसंद अलग होती है। मैडम को शहजाद जैसे लोग चाहिए तो वह उन्हें मिल ही रहें हैं और आज तक वह काम भी कर रहें हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि हम जैसे युवा लोग जो अपने भविष्य को इन संस्थानों में खोजते हैं। उन्हें क्या ऐसे संस्थानों के बारे में और वहां के काम करने वालों के बारे में पूरी जानकारी हासिल नही कर लेनी चाहिए। मेरा ये मानना है कि कोई भी युवा पत्रकार खासकर के आजका पत्रकार इतना बेवकूफ तो हरगिज नही हो सकता जो पहले ऐसे संस्थानों के बारे में पता नहीं करना चाहेगा। अब एक दो लोग जो गांव देहात से आकार यहां शहर में किसी भी तरह से स्थापित हो जाना चाहते हैं उनके लिए पहला कोई भी अवसर अपने आप में बड़ा ही होता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आया साधारण युवक था और इंटर्नशिप के साथ जो भी मिल गया कबूल कर लिया। खैर मेरा मकसद केवल नये लोगों को ऐसे संस्थानों और वहां काम करने वाले लोगों से आगाह करवाने का है, इसके बाद भी मर्जी युवा लोगों की है कि वह मेरी बात माने या माने। आखिर मैं किसी के भविष्य का फैसला करने वाला होता कौन हूं। तो चलिये अब हम आपको बताते हैं कि आंखों देखी में जाने से पहले आपको क्या करना होगा और आंखों देखी जब आप जायेगे तो पहल पहल आपको क्या दिखाई देगा। दो हैली रोड़ पर मैडम ने अपना प्रोडक्शन हाउस लगाया हुआ है। हालांकि सरकारी फरमान के मुताबिक किसी भी ऐसी दो हैली रोड़ जैसी रिहायशी इलाके में बिजनेस कार्य करना अनैतिक है। लेकिन मैडम को कोई फर्क नही पड़ता क्योंकि सरकार का आदमी और सरकार दोनों उनके कंट्रोल में रहती ही है। इसका अर्थ ये भी हो सकता है कि मैडम की सरकार में आज भी इतनी चलती है जितनी की एनडीए के कार्यकाल में चला करती थी। आज भी आंखों देखी दूरदर्शन पर ठीक उसी तरह से टीका हुआ है जिस तरह से संसद में महिला आरक्षण बिल, जो हर बार पास होने की कगार तक तो पहुंचता है लेकिन पास नहीं होता, ठीक बैसे ही आंखों देखी को दूरदर्शन टाटा तो कहना चाहता है लेकिन कह नही पाता। कहे भी तो कैसे मैडम का रौब और नाम से दूरदर्शन में आधे से ज्यादा अफसरों की हवा गायब रहती है। खैर कुछ भी हो आंखों देखी चल रहा है और दनदना कर चल रहा है। वहां लोग काम भी कर रहें हैं और पत्रकारिता भी सीख रहें हैं। तो भाईयों जब आप दो हैली रोड़ में कदम रखेंगे तो आपको एक पुराने से घर के आंगन में एक बूढ़ा आदमी सफेद जंधी और पयजामा पहने लकडी की कुर्सी पर बैठा मिलेगा। यह आदमी अक्सर अखबार पढ़ता या उंधता सा मिलता है कभी - कभार वह आपकी तरफ मात्र देखेगा कहेगा कुछ नही। वह आपको ऐसे देखेगा जैसे एक शिकारी किसी शिकार को जाल में आता हुआ देखता है। लेकिन उसका मकसद आपका शिकार करना नहीं होगा वह आपको देखकर कभी मुस्कुरा भी सकता है और कभी आपको अनदेखा भी कर सकता है। यह आप पर निर्भर करता है कि आपकी पर्सनल्टी कैसी है। ये सज्जन मैडम के पति है। इनका आंखों देखी और मैडम के किसी भी कार्य जो आंखों देखी से जुड़ा है किसी भी तरह से कोई लेना देना नही है। इसके बाद आपको गेट के भीतर मैडम का ड्राइवर तंबाकू खाता मिल जायेगा और एक दो बेकार के लोग भी यहां देखने को मिल सकते हैं जो केवल यहां अपने किसी परिचित से मिलने आये होते हैं। इसके बाद आप सामने एक शीशे का पुराना दरवाजा दिखेंगे जो बहुत सी जगह से टूटा हुआ होगा और इसे खोलते ही आपको एक भंयकर आवाज ------कीर्र कीर्र कीर्र सुनाई देगी जो आपके दांत यहां कदम रखते ही खट्टे करने के लिए काफी होगी। इसके बाद आपके घुसते ही उल्टे हाथ पर एक टेबल दिखाई देगी जो आपको आदिकाल की याद दिला देगी। इस टेबल पर आपको एक लाल और एक ब्राउन रंग का एमटीएनएल का फोन दिखाई देगा। यहीं पर कोई रिपोर्टर आपको अपनी स्टोरी लाइन अप करता भी दिखाई दे सकता है। यहां पर आपसे पूछा जायेगा कि आपको किससे मिलना है। यहीं से आपको ठीक सामने एक काला अधेड़ आदमी दिखाई देगा जो गंजा और एक थका थका सा दिखाई देगा। इसके मुंह के दोनों कोने से झाग निकलता रहता है और इसका पेट थोड़ा सा निकला हुआ होगा। ये आदमी आपको एक नजर में बीमार दिखाई देगा। इस आदमी का नाम नईम अख्तर है जो पिछले 15 - 16 साल से यही पाये जाते हैं। ये हर आने जाने वाले को बड़े ही ध्यान से देखते हैं। इनके पीछे कुछ नये लोग होते हैं जो बेकार की बातों में व्यस्त होते हैं क्योंकि यहां दोपहर एक बजे से पहले कोई काम ही नहीं होता। वह इधर -उधर की बाते करते हैं और उनके पीछे के एक कोने में आपको छत से कुछ ही नीचे लटकता हुआ एक ऐसा AC दिखाई देगा जो कभी नहीं चलता और ठीक उसी के नीचे आपको रद्दी का ढ़ेर दिखाई देगा। ये दफ्तर का एक हिस्सा है। यूं तो सारा ऑफिस ही बहुत शानदार है जिसमें से लगातार मछर मार दवा की बदबू आती रहती है। इसी के बीच मे आपको एक आदम काल का कम्प्यूटर दिख जायेगा जिसपर चार पांच लोग काम करते दिखेंगे। ये आपस में इसी बात पर लड़ते रहते हैं कि आज इस कम्प्यूटर का की-बोर्ड कौन प्रैस करेगा। इसपर काम शाम के समय बढ़ जाता है जब मैडम को तीन मिनट की आंखों देखी को दो मिनट मे निपटाना होता है। इसपर स्टोरी फाइनल होती है और मैडम के हाथों द्वारा लिखा गया एंकर बड़े मोटे शब्दों मे लिखा जाता है ताकि मैडम की आंखों को और उनकी आंखों पर लगे कंटेक्ट लैंस को ज्यादा मेहनत करनी पड़े। इसके बाद आपको शहजाद साहब मिलेंगे जो साथ वाले मैडम के कमरे के साथ बने एक और कमरे में रहते हैं। रहने से मेरा मतलब ये भी है कि वह अक्सर वही मिलते हैं। इन्हें देखकर आपको किसी ऐसे 70 के दशक के हीरों की याद जायेगी जो पैदा तो पचास मे हुआ था लेकिन वह 2008 तक बूढ़ा नहीं होने की कसम खाये पर्दे पर लगातार 18 साल की हीरोइन का हीरो बनकर आने पर उतारू हो। लंबे - लंबे काले किये हुए बाल, चेहरे में घंसी हुई छोटी - छोटी आंखें और गंदे से ऊंचे दांत वाला ये आदमी जैसे ही आपके सामने आयेगा पहले तो आपको इसके कपड़ो से एक डीयों की खुशबू आयेगी लेकिन जैसे ही आप इसके निकट जायेगे आपको समझ में जायेगा कि इसने अपने शरीर और कपड़ो पर डीयो क्यों लगाया हुआ है। इसका मुंह आपको सुबह-सुबह रात खाये किसी पार्टी के बदबूदार चिकन की याद दिला देगी जो सुबह तक शहजाद के जबड़ो में फंसा रहता है और रात को जब तक उस पुराने मुर्गें की जगह नया नही ले लेता वह पुराने का साथ नहीं छोड़ता। ये आपसे प्यार से बात करेगा क्योंकि वह जानता है कि आप ही वह फ्री का मुर्गा हैं जिसे वह अगले तीन चार महीने तक अराम - अराम से काटेगा और अपनी पसंद का काम करवायेगा। आपको लगेगा आपका उद्धार हो गया। आपको काम मिल गया। आप इसके बाद यहां पानी पीने की इच्छा जाहिर करेंगे तो आपको यहां रखी कुछ पुरानी बोतलों से पानी दिया जायेगा, जिनका प्रयोग मैडम ने कभी अपनी प्यास बुझाने के लिए खरीदा था लेकिन इनका पानी पीने के बाद मैडम को दफ्तर याद आयी तो उन्होंने इन बोतलो को फेंकना गवारा नहीं समझा और इन्हे दफ्तर में लाकर रख दिया। अब इन खाली बोतलों का इससे बढ़कर और अच्छा क्या प्रयोग हो सकता है। इसके बाद अगर आपका दिल थोड़ा हल्का होने का कर जाये तो फिर आपको एक कोना दिखा दिया जायेगा। वहां पर मैडम का नौकर और खानश्यमा भी रहता है। वही पर आपको एक टूटा हुआ दरबाजा दिखाई देगा जो कब गिर जायेगा किसी को नहीं पता। यही वह जगह है जहां आपको हल्का होना है। इसका हाल आपको किसी ऐसे टॉयलेट की याद जरूर दिला देगा जहां आप गये तो सांस लेते हुये थे और आये रोककर थे। यहां पर आपको पब्लिक शौचालय का पूरा आनंद मिलेगा और साथ ही प्रणायम का सूख भी क्योंकि यहां आप सांस बाबा राम देव की तरह से लेंगे और छोड़ेगे। यहां मैं आपको एक बात से अवगत और करवा देना चाहूंगा कि यही वो जगह भी है जहां से आंखों देखी के स्टाफ के लिये पीने का पानी जाता है। यही पर एक अधर में लगा नल्का है जिसमें म्यूनिसिपल्टी का पानी आता है। यहीं पानी स्टाफ को पीना होता है। इस पानी को मैडम नहीं पीती हां उनकी गाड़ी इस पानी से जरूर धुलती है। इसी पानी से पौधों और यहां काम करने वाले लोगों की सिंचाई भी की जाती है। अब जब आप यहां ही जायेगे तो चाय भी जरूर पीना चाहेंगे। चाय यहां पर बाहर से आती है। बाहर यानी दफ्तर के बाहर ही सड़क पर एक बहादुर है जो दो हैली रोड़ की दीवार के उस पार टक टकी लगाये देखता रहता है और पुरानी चाय पत्ती को उबालता रहता है कि कब आंखों देखी से कोई चाय का आर्डर आये। इस चाय का बिल दफ्तर नहीं देता आपको अपनी जेब से भरना होता है। यही पर दीवार के साथ आपको भैया जी की दुकान भी मिल जायेगी जो पान बीड़ी सिगरेट के साथ गुटखों की सप्लाई आपके लिये दफ्तर के भीतर ही कर देंगे। अगर आपके पास पैसे नहीं भी हैं तो कुछ दिन का उधार भी ये कर ही लेते हैं। तो फिलहाल की आंखों देखी में सिर्फ इतना ही

आंखों देखी -2

आंखों देखी का हाल तो आपने जान ही लिया, लेकिन इसके अलावा भी एक चीज ऐसी है जो आपको अपनी और आकर्षित कर सकती है वो कुछ और नही बल्कि आंखों देखी की लोकप्रियता है।
मेरा ये अपना अनुभव है कि "आंखों देखी" को लोग किसी देश के मशहूर चैनल से ज्यादा जानते हैं। मैंने आँखों देखी के लिए दिल्ली से बाहर भी रिपोर्टिंग की है और ऐसी जगह की है जहां मुझे लगता था कि यहां आंखों देखी को कोई नही जानता होगा। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब उत्तर प्रदेश के ऐटा मैनपुरी के एक गांव में हमारे माइक को देखकर लोगों ने बड़े उत्साह से पूछा कि आप आंखों देखी के पत्रकार हो। हमने कहा हां भाई हम आंखों देखी से हैं, फिर उन्होंने बताया कि हम क्या पूरा उत्तर प्रदेश आंखों देखी को हर दिन बड़े़ ध्यान से देखता है। मुझे ये सुनकर खुशी भी हुई और ये दुख भी। खुशी इसलिये की "आंखों देखी" में किया गया हमारा काम लोगों तक पहुंच रहा है और दुख इसलिये हुआ कि इतनी लोकप्रियता हासिल कर लेना वाला कार्यक्रम कुछ लोगों की गलतनामी और नीयत के चलते खराब होता जा रहा है। अच्छे लोग आंखों देखी में आते नही और पुराने आने की हिम्मत नही करते।
इसमें शायद किसी की कमी नही हैं। असल में मैडम को आंखों देखी जैसे सरकारी चैनल को चलाने के लिए सस्ते लोगों की जरुरत रहती है। ये सस्ते लोग नये प्रशिक्षु होते हैं जो काम की तलाश में भटकते भटकते आंखों देखी चले आते हैं। युवा लोगों की नयी एनर्जी आंखों देखी को सींचती रहती है, इन्हें शहजाद पालता है और समय आने पर यही लोग आंखों देखी का पालन पोषण करते रहते हैं। इससे कार्यक्रम आगे चलता रहता है और
ये ठीक भी है क्योंकि शायद दूरदर्शन भी मैडम के आलावा आंखों देखी को किसी ओर को देना नहीं चाहता। मेरा तो ये भी मानना है कि आंखों देखी के समकक्ष भी दूरदर्शन किसी और को खड़ा नहीं करना चाहता जिससे इस कार्यक्रम को तैयार करने वालों में प्रतिस्पार्धा बढ़े।
वह तो केवल इतना चाहता है कि आंखों देखी पुराने ढर्रे पर चलता रहे और वह सरकार को एक प्राइवेट संस्था को सरकारी खर्च पर चला रहा है इसका ब्यौरा देता रहे। दूरदर्शन के लिए ये सही भी है क्योंकि दूरदर्शन को किसी से किसी तरह की कोई प्रतिस्पार्धा तो करनी नही है। वह एक ऐसा सफेद हाथी है जिसे सरकार पाल रही है और इसमें बैठे कुछ लोग इस हाथी पर सवार होकर मैडम की लगातार चापलूसी करते चले जा रहें हैं। मेरा ये कहना नही है कि वह मैडम का आंखों देखी बंद कर दें या फिर उन्हें इस कार्यक्रम से हटा दें। मेरा महज ये कहना है कि अगर आप बाहर से न्यूज सैगमेंट ले रहें हैं तो नये लोगों को भी उन्हें मौका देना चाहिए। उन्हें दूरदर्शन के लिए ऐसे लोगों को की जरूरत होती है जो सत्ता में किसी किसी तरह से अपना वर्चस्व कायम किये हुए हैं। असल में हकीकत तो ये है कि दूरदर्शन कार्यक्रम ही केवल उन लोगों को देता है जो सत्ता में स्ट्रोंग रुप से जमें हुये हैं या फिर वह जो क्षेत्र में इतने दमदार है कि वह किसी और को यहां तक फटकने ही नही देते। इसमें दूरदर्शन की कुर्सियों पर बैठे वह तमाम बड़े अफसर भी शामिल होते हैं जो बहुत दफा रौब में और कई दफा पीछे के दरवाजे से मिलने वाली सहायता के लालच में इन्ही लोगों को कार्यक्रम दिये चले जाते हैं।
मैं केवल इतना पूछना चाहता हूं कि क्या इस देश में ऐसा कोई नहीं है जो 'रोजना' और 'आंखों देखी' जैसे कार्यक्रम तैयार नही कर सकता? क्या ऐसा कोई हिंदी पत्रकारिता में पत्रकार नहीं है जो 'आमने-सामने' जैसा प्रोग्राम तैयार नहीं कर सकता? क्या इस पूरे देश में ऐसा कोई नही है जो दूरदर्शन के लिए काम ही नही करना चाहता? ऐसे बहुत से लोग है जो दूरदर्शन के लिये फायदा भी ला सकते हैं और उसे नये आयाम तक भी ले जा सकते हैं। लेकिन हां ऐसे लोग वह है जिनका सत्ता से कुछ लेना देना नही है। वह लोग नये पत्रकार है जो अपना बजूद खोजने की कोशिश में हैं। वह छोटे -छोटे रुप में बड़े काम कर रहें हैं। अगर यहां नाम लेना जरूरी है तो मैं नाम लेकर ही बात करता हूं। क्या 'डीआईजी, कोबरा पोस्ट, तहलका,' ऐसी वह संस्था नहीं हैं जिन्होंने हिंदी और खासकर के खोजी पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। अगर दूरदर्शन निष्पक्ष रूप से इन संस्थाओं को न्यूज बूलेटिन बनाने और खोजी पत्रकारिता करने के लिए बढ़ावा दे तो क्या इनमें से कोई है जो काम करने के लिए इंकार कर दें। लेकिन सरकार की ही नीयत में खोट हो तो फिर पत्रकारिता की सेवा करने वाले क्या कर सकते हैं। वह दूरदर्शन में ऐसे लोगों को चाहती है जो उसके तलवे चाटते रहें। वह उनकी वाह वाही में रात दिन एक कर दें। इसका सीधा सा अर्थ है कि दूरदर्शन ये चाहता ही नहीं है कि वह निष्पक्ष पत्रकारिता करें। वह तो केवल सरकारी पिठ्ठू बना रहना चाहता है। शायद यही कारण भी रहा है कि दूरदर्शन लगातार हर सरकार के लिए घाटे का सौदा ही साबित हुआ है। हालांकि दूरदर्शन के पास आज किसी भी देश के दूसरे चैनल से ज्यादा उम्दा उपकरण और तकनीके हैं, लेकिन वह केवल डब्बों में बंद ही रहती है। वह किसी के काम नही आती। ज्यादा से ज्यादा इसका प्रयोग देश में होने वाले सरकारी कार्यक्रमों में होता है या फिर ऐसी राजनैतिक रैलियों में जिनका संबंध देश की सत्ता से होता है।
ये तो बात थी, दूर से दर्शन करने वाले दूरदर्शन की, लेकिन फिलहाल हमारा विषय दूरदर्शन नहीं "आंखों देखी" है। तो आंखों देखी की लोकप्रियता आपके प्रभावित कर सकती है। ऐसा इसलिये भी है कि आंखों देखी में जो भी काम करता है वह यह सोचकर करता है कि उसके जीवन का ये पहला कदम है और वह इस कदम के मजबूती से रखना चाहता है। इसका फायदा नये लोगों को भी होता है और आंखों देखी को भी।
नये लोगों के लिए मेरा ये कहना है कि अगर वह आंखों देखी को अपना पहला कदम बनाने की बात सोचते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन वह केवल इसे एक ऐसे संस्थान के रुप में लें जहां वह मात्र 30 दिन तक रहें। इतने दिनों में वह लगभग इलैक्ट्रोनिक मीडिया की बारिकियां जान ही जायेंगे। इसके बाद वह अपना नया टारगेट खोज लें। क्योंकि आंखों देखी किसी भी नये पत्रकार या पुराने का भी "लक्ष्य" तो हो ही नही सकता। अगर फिर भी कोई इसे अपना लक्ष्य बनना ही चाहे तो भैय्या इसमें हम तो इतना ही कह सकते हैं कि ठीक है हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता सभी को आजतक और स्टार न्यूज नहीं मिलता।
लेकिन नये लोगों से मेरा यही निवेदन है कि आज उनके लिये बहुत से ऑप्सन हैं। वह सीधे चैनलों को एपरोच कर सकते हैं। उन्हें यहां जाने की जरूरत ही नहीं हैं।
देश में आज ऐसे बहुत से नये और पुराने चैनल हैं जो नये लोगों को प्रशिक्षण और फिर नौकरी देने से गुरेज नहीं करते। इन चैनलों में ऐसे लोग भी है जो नये लोगों की कद्र करना जानते हैं। यहां मैं उन लोगों की ही बात करूं तो न्यूज 24 में अजीत अंजूम, इंडिया टीवी में प्रशांत टंडन और स्टार न्यूज में साजी ऐसे लोगों में से हैं जो नये लोगों को हाथों हाथ लेते हैं और उन्हें काम करने का मौका भी देते हैं। सहारा खुले तौर पर नये लोगों की भर्ती करता है तो जी न्यूज की वेबसाइट से ही आप नौकरी पा सकते हैं। इसके अलावा आज इंडिया न्यूज तो नये लोगों पर ही चल रहा है। हां ऐसे देश में दो चैनल हैं जिनके अंदर जाना बेहद मुश्किल है। पहला है एनडीटीवी इंडिया और दूसरा है आईबीएन7 ये दोनों ही ऐसे चैनल हैं जहां "बाबाओं" का जमधट है। यहां पर आपको उपदेश मिलेंगे लेकिन काम नही। हां अगर आपकी पहुंच है और आप किसी के भाई भतीजे या फिर जानकार है तो आपको कहीं भी काम मिल ही जायेगा। एनडीटीवी इंडिया में तो नये लोगों के लिए काम लगभाग है नही। मैंने पिछले कई सालों से नही देखा कि इस चैनल ने खुले तौर पर कभी नये लोगों को अपने यहां काम देने की बात कही हो। हां अगर यहां पर भी आपका अगर कोई हितेषी (जुगाड़) है तो आपको यहां क्या देश के किसी भी बड़े चैनल में काम मिल ही जायेगा। बाकी यहां अधिकतर लोग ऐसे परिवारों से हैं जिनके लिय़े पत्रकारिता मिशन नही बल्कि ऐसा काम है जिससे उन्हें लोकप्रियता मिलती है और समाज में इज्जत। इस काम को वह इसलिये भी करते हैं कि राजनीति में लोग उनके नाम को पहचाने।
इसमें से कुछ लोग तो खबरियां चैनल के माध्यम से अगले चार पांच साल में देश के किसी छोटे राज्य के मुख्यमंत्री तक बनने के सपने देख रहें हैं। अगर आज आपको मेरी बात का यकीन नहीं हो रहा तो ये मेरा दावा है कि अगले चार पांच सालों में गोवा का मुख्यमंत्री देश का ऐसा पत्रकार होगा जिसे लोग आज हर दिन टीवी पर देखते हैं। इस पत्रकार ने गोवा में अपने आपको इस तरह से परमोंट करना आरंभ किया है कि गोवा के लोगों की सोच अब इस पत्रकार के पक्ष में जा रही है। ये पत्रकार हफ्ते के दो दिन यही पाया जाता है। तो आज पत्रकारिता महज सत्ता पाने का हथियार ही नही है बल्कि इस देश पर राज करने का औजार भी होती जा रही है। ऐसे में ये चैनल नये लोगों को काम कैसे दे सकते हैं।
नये लोगों को अपने लिये ऐसे संस्थानों का चयन करना चाहिए जो उनके काम को सराहे भी और समय आने पर उनकी मदद भी करे। मेरा ये कहना है कि आज के युवा उन चैनलों को देखें जो नये हैं क्योंकि नये चैनल बेशक अभी खड़े हो रहें हैं लेकिन जब वह पूरी तरह से खड़े हो जायेंगे तो इनसे जुड़े नये लोगों को भी वह स्थापित कर देगा। ऐसे में नये लोगों को पहचान भी मिलेगी और काम भी।
अब मैं यहां बताना चाहूंगा कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया में संपादक जिसे बहुत सी जगह ईसी यानी एडिटोरियल चीफ या फिर असाइनमेंट हैड के रूप में पहचाना जाता है, किस तरह की रिपोर्टिंग चाहता है। अगर आप आंखों देखी में काम कर रहें हैं तो शहजाद आपसे चाहेंगा कि आप कोई ऐसी सनसनी लेकर आओं जो देखने वालों में कपकपी पैदा कर दे। अगर आप कहीं और हैं तो आपको पहले अपनी बीट को समझना होगा। बीट से मेरा मतलब ये है कि जब आप कही भी काम करते हैं तो वहां के हेड आपसे ये जरुर पूछेगा कि आपका सबजेक्ट क्या रहा है। अगर आप विज्ञान के छात्र रहें हैं तो आपको ऐसी रिपोर्टिंग दी जा सकती है जो विज्ञान की खबरों से जुड़ी हो, अगर आप अर्थ या व्यापार में जानकारी रखते हैं तो आपको बिजनेस रिपोर्टिंग दी जा सकती है। इसके अलावा राजनैतिक और अपराध बीट पर हर आदमी काम करना ही चाहता है। क्योंकि देश का हर एक नया युवा ये मानकर चलता है कि उसे दो ही चीजों की सही जानकारी है। पहली राजनीति की दूसरी देश के अपराध की, लेकिन ये हमेशा सही नही होता। अक्सर जोश में हम ये भूल जाते हैं कि हम असल में किस विषय की जानकारी रखते हैं। हम वही करने लग जाते हैं जिसकी सबसे ज्यादा डिमांड होती है। ऐसा जब होता है तभी नये लोगों का ह्रास होना आरंभ हो जाता है। क्योंकि नये लोग ये नहीं समझ पाते कि वह कौन सा कार्य है जिसे वह आसानी से कर सकते हैं। वह ये समझते हैं कि वह एक पत्रकार हैं जो सभी कुछ जानता है। ऐसा जब कभी भी होता है तभी नये लोग "बाइट सोल्जर" बनते चले जाते हैं। वह फिर ना तो अपने द्वारा सोची गयी स्टोरी को सही रुप दे पाते हैं और ही अपनी सोच के मुताबिक स्टोरी ही लिख पाते हैं। वह अपने विषय से भटकते चले जाते हैं और एक ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां वह पत्रकारिता में मात्र एक कामगार बनकर रह जाते हैं। मेरा ये कहना है कि हमें वही काम करना चाहिए जिसे हम अच्छी तरह से कर सके। ऐसा ना हो कि कार्य करते रहने के बाद हम अपने आप से कहें कि यार उस फलां आदमी ने कहां फंसा दिया।
पत्रकारिता का नाम ही फंसना है और फिर उससे बाहर आना। जी हां, पत्रकारिता का मतलब ही है कि हम ऐसे विषय उठाये जिनकी जानकारी साधारण आदमी को हो, हम उन तक वह खबर पहुंचाये जिससे वह अनिभिज्ञ हैं। हमारा काम ही है कि ऐसी जानकारियां लेकर आये जिससे समाज को अपने आपको देखने और समझने का मौका मिले।
नये लोगों को चाहिए कि वह ऐसी दमदार रिपोर्टिंग करें जिससे उनके कैरियर को दिशा मिले ना कि वह उन्हें अंधेरे में ले जाये। क्रमश: