कभी कभी लगता है जैसे ये जिंदगी होने या ना होने के बीच भटक रही है
कभी कभी ये भी लगता है कि जिंदा होने या ना होने के बीच का अंतर ही जिंदगी है।
फिर लगता है कि मासूम बच्चों की किलकारी
घर में उनका कलरव
घर आने पर उनका खुली बाजूओं से छूना ही जिंदगी है।
सुबह से शाम के बीच ऑफिस में जूझना
अपने को जिंदा रखना
या फिर अपने कंपीटिटरों को पछाड़ देना
शायद यहीं जिंदगी है।
फिर अहसास होता है...
एक दिन मैं भी हारूंगा।
हार जाउंगा किसी दौड़ में
क्योंकि उम्र की ढलान मैं कब तक रोक पाउंगा
कब तक मैं दौड़ मैं बना रहूंगा।
एक दिन मैं कम से कम सांस लेने के लिए तो रुकूंगा ही।
फिर उसके बाद
शायद थक कर बैठा तो बैठा ही रहूंगा।
फिर उसके बाद...
खामोश सी सड़क
सड़क पर मुसाफिर जो चला जा रहा है
किसी अज्ञात मंजिल की ओर
बगैर थके बगैर रूके लेकिन कहा कब तक
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