Thursday, December 29, 2011

गुरू


दुनिया में ऐसे बहुत कम लोग हैं...जो ये समझ पाते हैं...कि जिंदा रहना ही इस दुनिया में काफी नहीं है...इसके आगे भी एक दुनिया है....एक दुनिया ऐसी भी है...जहां मौत जिंदगी से हार जाती है। ये फिलॉसिफिकल बातें हो सकती हैं...खासतौर पर उन लोगों के लिए जिनके लिए जिंदगी जीने का मतलब ही दो समय का खाना खाकर इस दुनिया में आबादी बढ़ाना है। ये काम सभी करते हैं... जो इस दुनिया में आते हैं...लेकिन, इस दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी हैं...जो ये काम नहीं करते...उनकी प्यास उनकी थ्रस्ट आबादी नहीं आबादी की यादों में सालों साल बना रहना होता...वो जिंदा रहते हैं...तो भी और जब वो जिंदा नहीं भी होते तब भी।

मेरे एक दोस्त हैं...वो अक्सर कहते हैं...रवि ये दुनिया लोगों को भूल जाती है...कोई फर्क नहीं पड़ता कितने ही रोज आते हैं... कितने ही चले जाते हैं...लेकिन, कुछ को ये दुनिया पता है क्यों चाहकर भी नहीं भूला पाती क्योंकि वो लोग कभी भी इस दुनिया का हिस्सा नहीं रहे...वो कभी इस दौड़ में शामिल नहीं हुए कि शाम का खाना कहां से आयेगा...उन्हें ये नहीं पता होता था कि आज खाकर फिर कब मिलेगा...और ना ही वो इस बात की फ्रिक किया करते थे...कि कल खाना कपड़ा या सिर छुपाने के लिए छत कहां मिलेगी...वो चलते गए...चलते गए...और वो मंजिल पा गए...लेकिन अक्सर हम ऐसे लोगों को मूर्ख, फकीर या फिर पागल मानते रहे हैं...लेकिन असल मायने में वो हमारे गुरू हैं। वो इसलिए क्योंकि ये समाज से अलग रहे हैं...इनकी राह अलग रही है...सवाल ये भी उठता है कि आखिर इस जीवन का मतलब क्या है...हम एक समाजिक प्राणी है...समाज में रहकर अपना औऱ समाज का विकास करना हमारा मूलमंत्र है....और एक अनूठा काम ये है कि हमने आने वाली नस्लों को इतना मजबूत बनाना है..कि वो आने वाले समय में औऱ ज्यादा से ज्यादा सही तरीके से इस दुनिया में रह पाये। यहां मौजूद संसाधनों का इस्तेमाल कर पाये...लेकिन एक नजर डाले तो क्या समाजिक परिवेश दिन पर दिन और और कठिन नहीं होता जा रहा है...मानव जीवन लगातार एकाकी की ओर बढ़ रहा है। परिवार टूट रहे हैं...आत्महत्या बढ़ रही हैं..और मानव कुठा में इजाफा हो रहा है। क्या बजह हो सकती है। समाज तो सुधर रहा है...समाज में बड़े बड़े परिवर्तन हो रहे हैं....समाज लगातार विकास कर रहा है। आज का युवा गांव से शहर शहर से देश और देश से विदेश में काम कर रहा है। बावजूद इसके आज का युवा क्यों विचलित है। क्यों उसके मन में रह रह कर ये सवाल उठता है कि अभी मंजिल दूर है। क्यों युवा आज भीड़ में अपने आप को अकेला महसूस करता है। इसका जबाव इकनॉमी के एक्सपर्ट अलग अलग तरह से बता सकते हैं। वह कहेंगे कि मानव की मांग और इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पा रही हैं... और मानल की मांग लगातार बढ़ रही हैं। उसकी जरूरतों में इजाफा हो रहा है। पहले कम आय में गुजारा होता था। औऱ आदमी उसमें खुश था। लेकिन जैसे जैसे मानव का समग्र विकास हुआ है। मानल की जरूरतें बढ़ गयी हैं। ऐसे में इच्छाओं की पूर्ति होना मुश्किल होता जा रहा है...और इसका नतीजा ये है कि आत्महत्या और एकांकी बढ़ रही है। अब इसी बात को हम समाजशास्त्रीयों के नजरिए से समझने की कोशिश करते हैं। समाजशास्त्रियों की माने तो उनका मानना है कि समाज का जब जब विकास होता है...उसमें असंतोष बढ़ता है...क्योंकि समाज में प्रतिस्पार्धा बढ़ती है। और जब प्रतिस्पार्धा बढ़ती है...तो उस समाज में अवसाद होना स्वाभाविक है। खैर ये तो समाजशास्त्रियों की सोच है। लेकिन जब बात प्रतिस्पार्धा की हो तो मानव समाज में तो प्रतिस्पार्धा उसी दिन से आरंभ हो जाती है...जब पहला शुक्राणु अपना अंडा पाने के लिए गर्भ में तेजी से दौड़ लगाता है। और जो शुक्राणु जीत जाता है...वो अपना अंडा निषेचित करने में कामयाब हो जाता है। और फिर मानव के पैदा होने से लेकर जीवन जीने और उसे सुंदर बनाने में मानव लगातार प्रतिस्पार्धा में रहता है। फिर अचानक क्या हो जाता है...कि आदमी आत्महत्या करता है। क्यों आदमी इस अमूल्य जीवन को जो मिलता ही है एक भरसक प्रयास और कड़ी प्रतिस्पार्धा के बाद उसे खत्म, समाप्त करने की वीड़ा उठा लेता है। इसके लिए हमें आज से कुछ समय पीछे चलना होगा। हमें महाभारत काल में जाना होगा। जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं...और उन्हें गीता के माध्यम से जीवन का मर्म समझा रहे हैं। अर्जुन जीवन युद्ध से खिन्न है। और गांडीव छोड़ जमीन पर घुटनों के बल बैठे हैं। कृष्ण जो अर्जुन के गुरू भी हैं... और सारथी भी। वो अर्जुन को देखर स्तब्ध है। वह पहले मुस्कुराते हैं...और फिर अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं। पार्थ....ये जो भी तुम देखरहे हो...औऱ जिन्हें तुम अपना कह रहे हो...ये सभी उतने ही मेरे भी है...जितने तुम्हारे। और ये युद्ध तुम्हारा नहीं है। ये उस मानव जाति का है जो इस युद्ध के बाद सालों साल नहीं बल्कि युगों तक इस युद्ध को याद रखेगा। वो इस युद्ध को इसलिए याद नहीं रखेगा कि ये युद्ध तुमने या मैंने लड़ा है। बल्कि इस युद्ध को इस लिए याद रखा जाएगा...क्योंकि इस युद्ध में ये तय होगा कि घरती पर असल मायने में जीने का अधिकार किसे है। वो कौन है...जो इस अनमोल धरती पर सालों साल राज करेगा। और वो कैसा होगा...जो इस धरती पर इस अनमोल जीवन जीयेगा। हम और तुम और ये सभी एक दिन इस धरती पर नहीं रहेंगे। लेकिन आने वाली पीढ़ी को हम जीवन का वो अनमोल रत्न सौंपकर जाएंगे जिसे पाकर आने वाली पीढ़ी इस धरती पर सालों साल दुख दर्द और एकांकी से दूर रहकर सुखी जीवन व्यतीत करेगी। तो पार्थ गांडीव उठाओं और कर्म करते हुए....पाप, घृणा, नफरत, लालच, व्यविचार और समस्त गलत कार्यों को करने वाले इन शरीरों का नाश करो...नाश करो उन शरीरों को जो इनको धारण किए हुए हैं...नाश करो...उस विचार को जिसे पालकर मानवजाति काल शौक और दुख के गर्त में धंसती जाती है...और अंत में मुक्ति और मोक्ष को नहीं बल्कि अक्रांत दुख को हासिल करता है। पार्थ खत्म करो ये शोक और उठाओं गांडीव। तब अर्जुन श्री हरि से आज्ञा लेकर अक्रांत दुख शोक, लालच का विनाश करते हैं। अगर हम इस बात को और आसान तरीके से समझने की कोशिश करे तो श्री हरि ने कृष्ण के माध्यम से सिर्फ ये समझाने की कोशिश की है...कि जो भी कुछ हम देखते समझते या इस लोक पर महसूस करते हैं...वो सभी कुछ नश्वर है। जीवन कर्म के आधार पर सुख या दुख तय करता है। कर्म प्रधान है। औऱ कर्म का साफ सुथरा और समाज के प्रति ईमानदार अपने प्रति ईमानदार होना ही सभी दुखों पर विजय प्राप्त करना है। अर्जुन ने भी वहीं किया। लेकिन जीवन के इस महाभारत में सभी को कृष्ण कैसे मिले। ये भी एक बड़ा सवाल है। और इसका जबाव हमें महाभारत काल से पहले अयोध्या में मिलता है। जहां श्री राम को उनके गुरू वशिष्ठ गुरुकुल में शिक्षा दे रहे हैं। वहां गुरू राम से कह रहे हैं....राम तुम्हारे लिए सबसे बड़ा कौन है...और राम कहते हैं...आप। और फिर वशिष्ठ राम से पूछते हैं...मैं कैसे। इसपर राम मुस्कुरा कर कहते हैं...क्योंकि आपने मुझे जीवन का मर्म समझाया है। आपने इस जीवन को जीने का तरीका मुझे बताया है...मुझे अस्त्र शस्त्र से लेकर समाजिक परिवेश में रहने की चुनौतियों का सामना करने का तरीका समझाया है। ऐसे में आप ही मेरे लिए सबसे बड़े हैं। यानी कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो हर हाल में गुरू सबसे बड़ा है। और जिसके जीवन में गुरू है...उसका जीवन किसी अल्हड़ मस्त फकीर जैसा मस्त होगा।

1 comment:

Anonymous said...

Well said Raviji....but a true sadguru is difficult to find in this kalyug....so the best we can do is to make life and its bitter-sweet experiences as our guru...when cutthroat competition tries to kill us from within...then instead of getting crushed and becoming negative we should try to read into the lesson that is in the circumstance...that is our krishna-vachan, our bhagwad gita...in the mirror of experience we should see us unmasked....and learn lessons of life and go our way a changed person......as someone has said '' difficulties in life is the shadow of God's hand outstretched over our head as blessing''