मध्य प्रदेश में कांग्रेस चुनाव जीती। चुनाव के बाद कमलनाथ मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए। लेकिन कांग्रेस की आपसी फूट, गुटबाजी और कमलनाथ और ज्योतिरादित्य के अहम के आगे मध्यप्रदेश में सरकार एक साल 93 दिन में ही औंधे मुंह गिर गयी।
बीजेपी की मध्य प्रदेश में सरकार बनी और ज्योतिरादित्य अपने विधायकों के साथ आज बीजेपी के साथ हैं। कुछ ऐसा ही होते होते रह गया राजस्थान में। लेकिन, असम में बीजेपी ने कांग्रेस की गुटबाजी और फूट का फायदा उठाकर फिर एक बार मास्टरस्ट्रोक खेलकर सरकार बना ली।
अब बारी पंजाब की है। पंजाब में राहुल गांधी आगामी विधानसभा चुनाव में किसान
आंदोलन के सहारे पंजाब में हेडलाइन बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
कैप्टन अमरेन्द्र सिंह किसान आंदोलन के साथ अपने आप को जोड़ नहीं पाये और
पार्टी वर्कर भी कैप्टन के महाराजा स्टाइल से
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का पंजाब के बागी सिपाही नवजोत सिंह सिद्धू से मिलना और उसका जोरशोर से प्रचार करना और फिर पंजाब
अध्यक्ष की कमान सौंप देना आखिर हेडलाइन बदलना नहीं तो और क्या है। अब पंजाब में
सिद्धु की पंजाब कांग्रेस की ताजपोशी इस बात की तस्दीक है कि कांग्रेस अब पंजाब
में नवजोत सिंह सिद्धु के साथ ही आगमी विधानसभा चुनाव की पारी भी खेलना चाहती है।
लेकिन, क्या बीजेपी कांग्रेस में चल रही इस रस्साकस्सी को समझना नहीं चाहती या
फिर वो एक मौके की तलाश में है। और बीजेपी पंजाब को भी मध्य प्रदेश की तर्ज पर
लाकर एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक खेलकर पंजाब में कैप्टन को अपने पाले में ले आए।
बीजेपी की चुप्पी के मायने क्या हो सकते हैं
कांग्रेस के दो मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसे हैं जिनके खिलाफ बीजेपी बोलने से परहेज बरतती है, या कम बोलती है - कैप्टन अमरिंदर सिंह और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल।
देखा जाये तो ये दोनों ही मुख्यमंत्री बीजेपी के निशाने पर होने के साथ साथ
कांग्रेस आलाकमान के सामने भी - सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट के फॉर्मूले पर भी अव्वल ही
नजर आते हैं। खासकर, अगर मध्य प्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से
तुलना करके देखें तो - और दोनों में भी देखें तो कैप्टन अमरिंदर सिंह कहीं ज्यादा
मजबूत नजर आते हैं।
कैप्टन राजनीति के
पुराने धुरंधर हैं। वो जानते हैं कि गुगली पर कब पीछे हटना है या कब आगे आकार बॉल
को बॉउन्ड्री वॉल से बाहर निकालना है। वो शायरी नहीं करते और तुक्कबंदी भी नहीं
करते। लेकिन, उनके दांव कट जाये ऐसा उनके कैरियर के ग्राफ में देखने को नहीं
मिलता।
सैम पित्रोदा थ्योरी के हिसाब से देखें तो मध्य प्रदेश में जो 'हुआ तो हुआ' - और राजस्थान में जो 'होगा तो होगा', लेकिन अगर पंजाब में कुछ ऐसा वैसा होता है तो वो वो पंजाब और राजस्थान से भी
बुरा हो सकता है। कांग्रेस पंजाब के राजनीतिक एक्सप्रेसवे पर रफ्तार तो भर रही है,
लेकिन गियर नहीं बदल रही है। सामने बोर्ड पर
पढ़ भी रही है, जिस पर लिखा है -
आगे खतरनाक मोड़ है और मोड़ के आसपास बीजेपी नेतृत्व ही नहीं, अरविंद केजरीवाल और बादल परिवार भी मौके के
इंतजार में बैठा है।
यानी पंजाब में हर
मोड़ पर खतरनाक कट है। 'सावधानी हटी,
दुर्घटना घटी' अलर्ट को नजरअंदाज किया तो पंजाब में असम का इतिहास दोहराते
बीजेपी को देर नहीं लगेगी। और अगर बीजेपी ने जरा भी अधिक दिलचस्पी लेने शुरू कर दी
तो कैप्टन को ज्योतिरादित्य सिंधिया बनते भी देर नहीं लगेगी।
कैप्टन और ज्योतिरादित्य में फर्क है
कैप्टन कट्टर
कांग्रेसी है। इस बात में दो राय नहीं है। लेकिन, जिस तरह का घटनाक्रम पंजाब में
पिछले एक साल के दौरान देखने को मिला है। उससे कैप्टन अनिभिज्ञ भी नहीं है।
सिद्धू की ताजपोशी में कैप्टन शामिल बेशक हुए। लेकिन, सिद्धु का मंच से एक बार
भी कैप्टन की निगरानी में कांग्रेस को आगे बढ़ाने की बात उन्होंने नहीं की। हां,
इतना जरूर कहा कि मैं पंजाब के अपने सभी सीनियर्स लीडर्स की देखरेख में ही पंजाब
कांग्रेस को आगे लेकर चलूंगा।
कैप्टन को इस बात का भी अहसास है कि सिद्धु सिर्फ पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष तक ही रूकने वाला खिलाड़ी नहीं है। और मौजूदा हाल में पंजाब के मामले में सोनिया गांधी के फैसले की घड़ी आने तक राहुल गांधी को सिद्धू और कैप्टन दोनों को संभालना ही होगा - और आगे तो चुनौतियां हजार दिखती हैं।
हाल फिलहाल एक-दो मीडिया रिपोर्ट के जरिये राहुल गांधी की आशंका भी सूत्रों के हवाले से सामने आयी है - राहुल गांधी ने, एक रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब से मिलने आये असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं से बातचीत में पूछा था कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को अगर अगले विधानसभा चुनाव में चेहरा न बनाया जाये तो कितने विधायक बगावत करेंगे? अब तक ये बात सामने नहीं आयी है कि राहुल गांधी के मन में नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर कभी ऐसी कोई आशंका रही है या अब तक भी है या नहीं?
जिस तरह से सिद्धू अपने राजनीतिक कॅरिअर को पटरी पर लाने के लिए परेशान हैं।
ठीक उसी तरह से बीजेपी भी पंजाब में अपने वर्चस्व खोज रही है। अकालियों से बीजेपी
का तलाक हो गया है। आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से बीजेपी की पटरी मेल
नहीं खाती। ऐसे में बीजेपी की सीधी टक्कर कांग्रेस से है। कैप्टन अमरिंदर सिंह मौजूदा
समय में बीजेपी को एक अच्छा अवसर प्रदान कर सकते हैं। क्योंकि पंजाब में अभी भी
कैप्टन की राजनीतिक पकड़ मजबूत है।
इस बात को मजबूती तब ज्यादा मिलती दिखती है जब मुख्यमंत्री के कट्टर विरोधी प्रताप सिंह बाजवा ने भी कैप्टन अमरिंदर सिंह से हाथ मिलाया। ऐसे में कैप्टन के विरोधी विधायक बाजवा के साथ तो जा सकते हैं, लेकिन सिद्धू का सपोर्ट करें ऐसा नहीं लगता।
क्या नवजोत सिंह सिद्धु भी गुगली फेंक सकते हैं
सवाल ये है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू बीजेपी में लौट सकते हैं? बड़ा सवाल ये है कि क्या बीजेपी सिद्धू को बीजेपी वापस लेगी? लेकिन क्यों नहीं? ममता बनर्जी मुकुल रॉय की घरवापसी के लिए खुशनुमा माहौल बना सकती हैं तो बीजेपी के लिए सिद्धू में क्या खराबी है?
सिद्धू की तरफ से अब तक एक ही शर्त सामने आयी है। चाहे जो हो जाये, सिद्धू पंजाब की राजनीति में ही बने रहना चाहते हैं। अगर वो सिंधिया की तरह केंद्र के लिए राजी हो जायें तो पहले की तरह बीजेपी के लिए भी कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिये - ज्यादा कुछ नहीं तो दिल्ली में बाबुल सुप्रियो जैसा ओहदा तो मिल ही सकता है! है कि नहीं?
ये भी है कि अगर सिद्धू फिर से बीजेपी को ये भरोसा दिला दें कि मौका मिले तो वो हिमंत बिस्वा सरमा जैसी कोशिशें कर सकते हैं, तो रास्ता काफी आसान हो सकता है। सिद्धू और बीजेपी दोनों के लिए। अभी तो अकाली दल और आम आदमी पार्टी का जो हाल है, बीजेपी आसानी से पंजाब में सत्ता हासिल कर सकती है। ये जरूर है कि बीजेपी ने पंजाब की राजनीति में दलित विमर्श पहले से घोल दिया है।
पंजाब में अकाली दल और मायावती की पार्टी बीएसपी के बीच चुनावी समझौता हो चुका है। आम आदमी पार्टी वाले अरविंद केजरीवाल भी मुफ्त बिजली-पानी के दिल्ली मॉडल के वादे का प्रचार शुरू कर चुके हैं, लेकिन बीजेपी खुल कर सामने नहीं आ रही है। दलित मुख्यमंत्री की पेशकश के बाद बीजेपी परदे के पीछे रह कर काम कर रही है। बीजेपी को तो बस कांग्रेस के खिलाफ एक मोहरे की तलाश है।
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