Monday, May 31, 2010

क्यों बदले रिश्ते ?


अब तक मैं सोचता था खून ही खून के काम आता है।
सुनी थी एक कहानी
अपना मारे छांव में डाले

लेकिन बदलते जीवन के परिवेश और रिश्तों के समीकरणों ने
ढाह दी है हर दीवार उस सोच की, जो मिली थी विरासत में।

क्या हुआ कैसे हुआ पता नहीं,
बदल गया सब कुछ
बचपन की कहानी
बचपन के रिश्ते।
अब बहन राखी पर मेरी कलाई पर कलावा नहीं बांधती।
न ही भैया दूज पर तिलक ही करती।
पिता भी दशहरे पर जलेवी नहीं लाते।
मां तो कभी की रूठ चुकी थी।
है उसे शिकायत की मैं अब उसका बेटा नहीं रहा।
कहती है मैं अब किसी का पति हूं, बाप हूं।
भाई भी नहीं मिलता मुझे अब कभी।
सुना है रहता है वह भी इसी शहर के किसी फ्लैट में।

मुझे याद नहीं, मैंने अंतिम बार कब देखा था अपनी मां के जन्में उस भाई को जो रहता रहता था मेरे ही साथ मेरा साया बनकर।
कैसे अलग हो गया वह
मैंने तो बस यही कहा था उसे कि घर बड़ा हो गया है उसने फिर क्या सोचकर घर ही ढाह दिया।
कहता था नया घर बनाएंगे।
लेकिन जमीन और जमीर का सौदा कर वह इस शहर में कही खो गया।
मैं रोज उसे खोजता हूं लंबी काली सड़कों पर लेकिन नहीं दिखता वो मुझे इस भीड़ में।

3 comments:

दिलीप said...

sahi kaha ghar bade hue dil chote hote gaye....

Udan Tashtari said...

घर घर यही हालात है..शायद यही नई दुनिया है.

पंकज मिश्रा said...

बात सही है। बहुत कुछ बदल गया है। पर जनाब आप भी तो बदल गए होंगे। नहीं क्या?
http://udbhavna.blogspot.com/