Saturday, June 19, 2010

कब आएंगे मेरे द्वापर के कृष्ण

एक दोस्त था मेरा कहता था सुख दुख का साथी हूं मैं तेरा

रहता था कृष्ण की तरह वह भी द्वाराका में एक राजा की तरह

थे उसके भी कई द्वारपाल और सिपहेसलार।

रहता था हमेशा एक नशे में वो

कहता सभी को था वो चोर

सुनता नहीं जो उसकी बात था

उसके लिए वहीं सबसे बड़ा गुनहगार था।

एक दिन अचानक मैं ये सोचकर उसके दरवाजे चला गया

कि है अगर वो कृष्ण तो मैं भी सुदामा हूं।

रखेगा वो मेरी उस भूल को ठोकर पर

जिसके लिए मैं कई जन्मों से शर्मसार हूं।

द्वार पहुंचा सुदामा... हुआ आदार सत्कार

भूल गया सुदामा अपने गुनाह।

कृष्ण ने सुदामा को पहले लगाया गले

और कुछ याद आते ही

शिशुपाल सा गरजा वो

देता रहा गालिया किया 100 का भी आंकड़ा पार

सुनता रहा सुदामा और मुस्कुराता रहा

रोता रहा मन ही मन और कोसता रहा

अपने आप को, अपने भाग्य को

कि क्यों भूल गया वो कि अभी नहीं आये हैं द्वापर के कृष्ण

जो सुदामा की भूल को भूल जाते और लगा लेते गले

दोस्ती निभाते, मेरे दुखों को हरते और मेरा जहर अपने प्यार से धो डालते।

लौटा सुदामा फिर अपनी कुटियां में

टकटकी लगा देखता रहा अपने भूखे नंगे बच्चों को कई घंटे

और सोचता रहा कि कब आयेंगे मेरे द्वापर के कृष्ण... कब आएंगे मेरे द्वापर के कृष्ण।

1 comment:

कडुवासच said...

... सुन्दर भाव्पूर्ण रचना!!!