आंखों देखी का हाल तो आपने जान ही लिया, लेकिन इसके अलावा भी एक चीज ऐसी है जो आपको अपनी और आकर्षित कर सकती है वो कुछ और नही बल्कि आंखों देखी की लोकप्रियता है।
मेरा ये अपना अनुभव है कि "आंखों देखी" को लोग किसी देश के मशहूर चैनल से ज्यादा जानते हैं। मैंने आँखों देखी के लिए दिल्ली से बाहर भी रिपोर्टिंग की है और ऐसी जगह की है जहां मुझे लगता था कि यहां आंखों देखी को कोई नही जानता होगा। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा ताज्जुब तब हुआ जब उत्तर प्रदेश के ऐटा मैनपुरी के एक गांव में हमारे माइक को देखकर लोगों ने बड़े उत्साह से पूछा कि आप आंखों देखी के पत्रकार हो। हमने कहा हां भाई हम आंखों देखी से हैं, फिर उन्होंने बताया कि हम क्या पूरा उत्तर प्रदेश आंखों देखी को हर दिन बड़े़ ध्यान से देखता है। मुझे ये सुनकर खुशी भी हुई और ये दुख भी। खुशी इसलिये की "आंखों देखी" में किया गया हमारा काम लोगों तक पहुंच रहा है और दुख इसलिये हुआ कि इतनी लोकप्रियता हासिल कर लेना वाला कार्यक्रम कुछ लोगों की गलतनामी और नीयत के चलते खराब होता जा रहा है। अच्छे लोग आंखों देखी में आते नही और पुराने आने की हिम्मत नही करते।
इसमें शायद किसी की कमी नही हैं। असल में मैडम को आंखों देखी जैसे सरकारी चैनल को चलाने के लिए सस्ते लोगों की जरुरत रहती है। ये सस्ते लोग नये प्रशिक्षु होते हैं जो काम की तलाश में भटकते भटकते आंखों देखी चले आते हैं। युवा लोगों की नयी एनर्जी आंखों देखी को सींचती रहती है, इन्हें शहजाद पालता है और समय आने पर यही लोग आंखों देखी का पालन पोषण करते रहते हैं। इससे कार्यक्रम आगे चलता रहता है और
ये ठीक भी है क्योंकि शायद दूरदर्शन भी मैडम के आलावा आंखों देखी को किसी ओर को देना नहीं चाहता। मेरा तो ये भी मानना है कि आंखों देखी के समकक्ष भी दूरदर्शन किसी और को खड़ा नहीं करना चाहता जिससे इस कार्यक्रम को तैयार करने वालों में प्रतिस्पार्धा बढ़े।
वह तो केवल इतना चाहता है कि आंखों देखी पुराने ढर्रे पर चलता रहे और वह सरकार को एक प्राइवेट संस्था को सरकारी खर्च पर चला रहा है इसका ब्यौरा देता रहे। दूरदर्शन के लिए ये सही भी है क्योंकि दूरदर्शन को किसी से किसी तरह की कोई प्रतिस्पार्धा तो करनी नही है। वह एक ऐसा सफेद हाथी है जिसे सरकार पाल रही है और इसमें बैठे कुछ लोग इस हाथी पर सवार होकर मैडम की लगातार चापलूसी करते चले जा रहें हैं। मेरा ये कहना नही है कि वह मैडम का आंखों देखी बंद कर दें या फिर उन्हें इस कार्यक्रम से हटा दें। मेरा महज ये कहना है कि अगर आप बाहर से न्यूज सैगमेंट ले रहें हैं तो नये लोगों को भी उन्हें मौका देना चाहिए। उन्हें दूरदर्शन के लिए ऐसे लोगों को की जरूरत होती है जो सत्ता में किसी न किसी तरह से अपना वर्चस्व कायम किये हुए हैं। असल में हकीकत तो ये है कि दूरदर्शन कार्यक्रम ही केवल उन लोगों को देता है जो सत्ता में स्ट्रोंग रुप से जमें हुये हैं या फिर वह जो क्षेत्र में इतने दमदार है कि वह किसी और को यहां तक फटकने ही नही देते। इसमें दूरदर्शन की कुर्सियों पर बैठे वह तमाम बड़े अफसर भी शामिल होते हैं जो बहुत दफा रौब में और कई दफा पीछे के दरवाजे से मिलने वाली सहायता के लालच में इन्ही लोगों को कार्यक्रम दिये चले जाते हैं।
मैं केवल इतना पूछना चाहता हूं कि क्या इस देश में ऐसा कोई नहीं है जो 'रोजना' और 'आंखों देखी' जैसे कार्यक्रम तैयार नही कर सकता? क्या ऐसा कोई हिंदी पत्रकारिता में पत्रकार नहीं है जो 'आमने-सामने' जैसा प्रोग्राम तैयार नहीं कर सकता? क्या इस पूरे देश में ऐसा कोई नही है जो दूरदर्शन के लिए काम ही नही करना चाहता? ऐसे बहुत से लोग है जो दूरदर्शन के लिये फायदा भी ला सकते हैं और उसे नये आयाम तक भी ले जा सकते हैं। लेकिन हां ऐसे लोग वह है जिनका सत्ता से कुछ लेना देना नही है। वह लोग नये पत्रकार है जो अपना बजूद खोजने की कोशिश में हैं। वह छोटे -छोटे रुप में बड़े काम कर रहें हैं। अगर यहां नाम लेना जरूरी है तो मैं नाम लेकर ही बात करता हूं। क्या 'डीआईजी, कोबरा पोस्ट, तहलका,' ऐसी वह संस्था नहीं हैं जिन्होंने हिंदी और खासकर के खोजी पत्रकारिता को नया आयाम दिया है। अगर दूरदर्शन निष्पक्ष रूप से इन संस्थाओं को न्यूज बूलेटिन बनाने और खोजी पत्रकारिता करने के लिए बढ़ावा दे तो क्या इनमें से कोई है जो काम करने के लिए इंकार कर दें। लेकिन सरकार की ही नीयत में खोट हो तो फिर पत्रकारिता की सेवा करने वाले क्या कर सकते हैं। वह दूरदर्शन में ऐसे लोगों को चाहती है जो उसके तलवे चाटते रहें। वह उनकी वाह वाही में रात दिन एक कर दें। इसका सीधा सा अर्थ है कि दूरदर्शन ये चाहता ही नहीं है कि वह निष्पक्ष पत्रकारिता करें। वह तो केवल सरकारी पिठ्ठू बना रहना चाहता है। शायद यही कारण भी रहा है कि दूरदर्शन लगातार हर सरकार के लिए घाटे का सौदा ही साबित हुआ है। हालांकि दूरदर्शन के पास आज किसी भी देश के दूसरे चैनल से ज्यादा उम्दा उपकरण और तकनीके हैं, लेकिन वह केवल डब्बों में बंद ही रहती है। वह किसी के काम नही आती। ज्यादा से ज्यादा इसका प्रयोग देश में होने वाले सरकारी कार्यक्रमों में होता है या फिर ऐसी राजनैतिक रैलियों में जिनका संबंध देश की सत्ता से होता है।
ये तो बात थी, दूर से दर्शन करने वाले दूरदर्शन की, लेकिन फिलहाल हमारा विषय दूरदर्शन नहीं "आंखों देखी" है। तो आंखों देखी की लोकप्रियता आपके प्रभावित कर सकती है। ऐसा इसलिये भी है कि आंखों देखी में जो भी काम करता है वह यह सोचकर करता है कि उसके जीवन का ये पहला कदम है और वह इस कदम के मजबूती से रखना चाहता है। इसका फायदा नये लोगों को भी होता है और आंखों देखी को भी।
नये लोगों के लिए मेरा ये कहना है कि अगर वह आंखों देखी को अपना पहला कदम बनाने की बात सोचते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन वह केवल इसे एक ऐसे संस्थान के रुप में लें जहां वह मात्र 30 दिन तक रहें। इतने दिनों में वह लगभग इलैक्ट्रोनिक मीडिया की बारिकियां जान ही जायेंगे। इसके बाद वह अपना नया टारगेट खोज लें। क्योंकि आंखों देखी किसी भी नये पत्रकार या पुराने का भी "लक्ष्य" तो हो ही नही सकता। अगर फिर भी कोई इसे अपना लक्ष्य बनना ही चाहे तो भैय्या इसमें हम तो इतना ही कह सकते हैं कि ठीक है हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता सभी को आजतक और स्टार न्यूज नहीं मिलता।
लेकिन नये लोगों से मेरा यही निवेदन है कि आज उनके लिये बहुत से ऑप्सन हैं। वह सीधे चैनलों को एपरोच कर सकते हैं। उन्हें यहां जाने की जरूरत ही नहीं हैं।
देश में आज ऐसे बहुत से नये और पुराने चैनल हैं जो नये लोगों को प्रशिक्षण और फिर नौकरी देने से गुरेज नहीं करते। इन चैनलों में ऐसे लोग भी है जो नये लोगों की कद्र करना जानते हैं। यहां मैं उन लोगों की ही बात करूं तो न्यूज 24 में अजीत अंजूम, इंडिया टीवी में प्रशांत टंडन और स्टार न्यूज में साजी ऐसे लोगों में से हैं जो नये लोगों को हाथों हाथ लेते हैं और उन्हें काम करने का मौका भी देते हैं। सहारा खुले तौर पर नये लोगों की भर्ती करता है तो जी न्यूज की वेबसाइट से ही आप नौकरी पा सकते हैं। इसके अलावा आज इंडिया न्यूज तो नये लोगों पर ही चल रहा है। हां ऐसे देश में दो चैनल हैं जिनके अंदर जाना बेहद मुश्किल है। पहला है एनडीटीवी इंडिया और दूसरा है आईबीएन7। ये दोनों ही ऐसे चैनल हैं जहां "बाबाओं" का जमधट है। यहां पर आपको उपदेश मिलेंगे लेकिन काम नही। हां अगर आपकी पहुंच है और आप किसी के भाई भतीजे या फिर जानकार है तो आपको कहीं भी काम मिल ही जायेगा। एनडीटीवी इंडिया में तो नये लोगों के लिए काम लगभाग है नही। मैंने पिछले कई सालों से नही देखा कि इस चैनल ने खुले तौर पर कभी नये लोगों को अपने यहां काम देने की बात कही हो। हां अगर यहां पर भी आपका अगर कोई हितेषी (जुगाड़) है तो आपको यहां क्या देश के किसी भी बड़े चैनल में काम मिल ही जायेगा। बाकी यहां अधिकतर लोग ऐसे परिवारों से हैं जिनके लिय़े पत्रकारिता मिशन नही बल्कि ऐसा काम है जिससे उन्हें लोकप्रियता मिलती है और समाज में इज्जत। इस काम को वह इसलिये भी करते हैं कि राजनीति में लोग उनके नाम को पहचाने।
इसमें से कुछ लोग तो खबरियां चैनल के माध्यम से अगले चार पांच साल में देश के किसी छोटे राज्य के मुख्यमंत्री तक बनने के सपने देख रहें हैं। अगर आज आपको मेरी बात का यकीन नहीं हो रहा तो ये मेरा दावा है कि अगले चार पांच सालों में गोवा का मुख्यमंत्री देश का ऐसा पत्रकार होगा जिसे लोग आज हर दिन टीवी पर देखते हैं। इस पत्रकार ने गोवा में अपने आपको इस तरह से परमोंट करना आरंभ किया है कि गोवा के लोगों की सोच अब इस पत्रकार के पक्ष में जा रही है। ये पत्रकार हफ्ते के दो दिन यही पाया जाता है। तो आज पत्रकारिता महज सत्ता पाने का हथियार ही नही है बल्कि इस देश पर राज करने का औजार भी होती जा रही है। ऐसे में ये चैनल नये लोगों को काम कैसे दे सकते हैं।
नये लोगों को अपने लिये ऐसे संस्थानों का चयन करना चाहिए जो उनके काम को सराहे भी और समय आने पर उनकी मदद भी करे। मेरा ये कहना है कि आज के युवा उन चैनलों को देखें जो नये हैं क्योंकि नये चैनल बेशक अभी खड़े हो रहें हैं लेकिन जब वह पूरी तरह से खड़े हो जायेंगे तो इनसे जुड़े नये लोगों को भी वह स्थापित कर देगा। ऐसे में नये लोगों को पहचान भी मिलेगी और काम भी।
अब मैं यहां बताना चाहूंगा कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया में संपादक जिसे बहुत सी जगह ईसी यानी एडिटोरियल चीफ या फिर असाइनमेंट हैड के रूप में पहचाना जाता है, किस तरह की रिपोर्टिंग चाहता है। अगर आप आंखों देखी में काम कर रहें हैं तो शहजाद आपसे चाहेंगा कि आप कोई ऐसी सनसनी लेकर आओं जो देखने वालों में कपकपी पैदा कर दे। अगर आप कहीं और हैं तो आपको पहले अपनी बीट को समझना होगा। बीट से मेरा मतलब ये है कि जब आप कही भी काम करते हैं तो वहां के हेड आपसे ये जरुर पूछेगा कि आपका सबजेक्ट क्या रहा है। अगर आप विज्ञान के छात्र रहें हैं तो आपको ऐसी रिपोर्टिंग दी जा सकती है जो विज्ञान की खबरों से जुड़ी हो, अगर आप अर्थ या व्यापार में जानकारी रखते हैं तो आपको बिजनेस रिपोर्टिंग दी जा सकती है। इसके अलावा राजनैतिक और अपराध बीट पर हर आदमी काम करना ही चाहता है। क्योंकि देश का हर एक नया युवा ये मानकर चलता है कि उसे दो ही चीजों की सही जानकारी है। पहली राजनीति की दूसरी देश के अपराध की, लेकिन ये हमेशा सही नही होता। अक्सर जोश में हम ये भूल जाते हैं कि हम असल में किस विषय की जानकारी रखते हैं। हम वही करने लग जाते हैं जिसकी सबसे ज्यादा डिमांड होती है। ऐसा जब होता है तभी नये लोगों का ह्रास होना आरंभ हो जाता है। क्योंकि नये लोग ये नहीं समझ पाते कि वह कौन सा कार्य है जिसे वह आसानी से कर सकते हैं। वह ये समझते हैं कि वह एक पत्रकार हैं जो सभी कुछ जानता है। ऐसा जब कभी भी होता है तभी नये लोग "बाइट सोल्जर" बनते चले जाते हैं। वह फिर ना तो अपने द्वारा सोची गयी स्टोरी को सही रुप दे पाते हैं और न ही अपनी सोच के मुताबिक स्टोरी ही लिख पाते हैं। वह अपने विषय से भटकते चले जाते हैं और एक ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां वह पत्रकारिता में मात्र एक कामगार बनकर रह जाते हैं। मेरा ये कहना है कि हमें वही काम करना चाहिए जिसे हम अच्छी तरह से कर सके। ऐसा ना हो कि कार्य करते रहने के बाद हम अपने आप से कहें कि यार उस फलां आदमी ने कहां फंसा दिया।
पत्रकारिता का नाम ही फंसना है और फिर उससे बाहर आना। जी हां, पत्रकारिता का मतलब ही है कि हम ऐसे विषय उठाये जिनकी जानकारी साधारण आदमी को न हो, हम उन तक वह खबर पहुंचाये जिससे वह अनिभिज्ञ हैं। हमारा काम ही है कि ऐसी जानकारियां लेकर आये जिससे समाज को अपने आपको देखने और समझने का मौका मिले।
नये लोगों को चाहिए कि वह ऐसी दमदार रिपोर्टिंग करें जिससे उनके कैरियर को दिशा मिले ना कि वह उन्हें अंधेरे में ले जाये। क्रमश:
कहने के लिए कभी कभी हमारे पास शब्द नहीं होते और कभी माध्यम, लेकिन कहना तो है। क्योंकि मरना तय है और मरते वक्त दिल में कोई बात रह जाये तो फिर उस जीवन का मतलब ही क्या? इसलिए अपने दिल की बात कहो और अगर कोई न सुने तो शोर मचा कर कहो ताकि अंतिम समय दिल यहीं कहे कि अब बस बहुत हुआ अब शांत हो जाओ।
Thursday, March 4, 2010
आंखों देखी -2
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