Wednesday, September 22, 2010

गम ये नहीं दादी मर गई, डर ये है कि मौत घर देख गई

ये कहावत जब मैंने पहली बार अपने बॉस से एक मुद्दे पर सुनी तो सुनकर पहले तो में सन्न रह गया। कारण शायद ये था कि मेरे घर में मौत हुई थी और मैं उस मौत के गम से बाहर निकलने की कोशिश में था। लेकिन मौत घर देख गई। ये बात सुनकर मेरे एक बार को घुटने कांप गए। क्योंकि कहा जाता है मौत जब घर देख जाती है तो वापस मुढ़कर जरूर आती है।
मौत यूं तो एक सच्चाई है जिसका एक दिन सामना होना ही है। लेकिन मौत का ख्याल आते ही मन में कुछ सवाल तो उठते ही है। मरने वाला ये सोचकर खुश होता है कि चलो यार ये काम भी निपटा और जिंदा ये सोचकर खुश होता है कि चलो यार कुछ दिन औऱ। इसे खुशी कहे या गम, लेकिन ये दोनों ही दिलचस्प मामले हैं। मौत पर यूं तो इस दुनिया में जब से आदमी आया है तभी से वह कुछ न कुछ बोलता ही रहा है। किसी ने इसे अंतिम यात्रा बताया तो किसी ने इसे ही जीवन की शुरुआत कहा।
मेरे घर में मौत किसी शरीर की नहीं हुई थी, इसलिए भी शायद मैं थोड़ा ज्यादा सहम गया था। मेरे घर में मौत हुई थी मेरे अस्तित्व की, मेरे संघर्ष की और मेरे आत्मसम्मान की। मैं जिस संस्थान में कार्यरत था वहां से मुझे एक माह के लिए ये कहकर छुट्टी पर दे दी गई कि मेरी अभी दफ्तर में आवश्यकता नहीं है। लाख कोशिशें करने के बाद भी मैं इस असमायिक मौत को झेल नहीं पा रहा था। कारण चाहे कुछ भी रहा हो जिसमें ये पहला कारण हो सकता है कि मैं इस अचानक विपत्ति के लिए तैयार ही नहीं था। लेकिन विपत्ति आ गई तो मैं परेशान हो उठा। हालांकि मेरी संस्थान में वापसी भी हुई औऱ बहाली भी लेकिन मौत क्योंकि घर देख गई है तो ये सवाल मेरे मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर मेरे बॉस ने जिन्होंने मेरी कई आडे़ समय मदद भी की और मेरे आत्मसम्मान की रक्षा भी। उन्होंने एक बात कही कि यार मौत तय है। किसी का पहले और किसी का बाद में। नंबर सभी का आना है। आज हमारा तो कल तुम्हारी बारी है। लगी है कतार एक के बाद एक सभी की बारी है। ये सुनकर मुझे थोड़ा ढांढस तो बंधा साथ ही इस बात का अहसास भी हुआ कि आज के समय में हम हर दिन मौत से साक्षात्कार करते हैं। फर्क इतना है कभी हम जीत कर आते हैं और कभी हार कर।

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