Wednesday, March 17, 2010

प्रतिस्पर्धा

जीवन की दौड़ में अनवरत चलने वाली प्रतिस्पर्धा को समर्पित मैं दौड़ा चला जा रहा था। बगैर ये सोचे की ये रेसिंग ट्रैक कहा समाप्त होगा।
मैं दौड़ रहा था उस ट्रैक पर जिसका कोई आदि और अंत नहीं था।
मैं जितना तेज दौड़ता उतनी ही प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती।
मेरे साथी गोली की आवाज के साथ भागे थे मेरे साथ ही, उनमें से कुछ मेरे साथ अब भी दौड़ में शामिल थे और कुछ को मैं पीछे मुड़कर देख नहीं सकता था।
लेकिन दौड़ से पहले सभी दावेदार शानदार थे, सभी दावेदार एक से बढ़कर एक थे।
किसी के भी दौड़ में पीछे छुटने की कोई गुजाइश ही नहीं थी।
हमारे आकाओं को (बॉस) हम पर विश्वास (नौकरी देकर हमें प्रतिस्पर्धा में शामिल किया) था।
आंखों पर बड़े बड़े काले चश्में (लालच) लगाकर हमारी हौसला अफजाई कर रहे थे।
हमें ये लगा की वह हमारी जीत पर हमारे कंधे थपथपा कर हमारी कामयाबी का जश्न मनायेंगे।
जश्न तो वह मना ही रहे थे, क्योंकि हम उनके लिए वह प्यादे थे जिनके सर देकर राजा जंग जीतकर ‘मसीहा’ बनता है।
मैं लगातार अपनी जीतपर खुश था, मुझे लग रहा था कि वह मेरी जीत पर हंस रहा है। लेकिन वह इस बात पर खुश था कि उसका 100 का काम मैं 10 में कर रहा था। वह इस बात पर भी खुश था कि उसका धंधा फलफूल रहा है।
वह ट्रैक के गलियारे में से सिगार फूंकता अपने दांतों को भीचकर हंसता और मेरा नाम लेकर मुझे और तेज दौड़ने को कहता।
वह चीखता कभी चिल्लाता और मुझे अनवरत दौड़ने का हुक्म देता।
मैं भी दौड़ रहा था क्योंकि इस दौड़ से मेरा परिवार चल रहा था।
मेरे बच्चे इस दौड़ के सट्टे से स्कूल जा रहे थे, मेरी पत्नी रोज सिंगार करके मेरे पसीने से लथपथ चेहरे को अपने अंचाल से पूछा करती थी।
सभी कुछ ठीक था लेकिन मेरे शरीर की धमानियां फूलने लगी थी, दिमाग पीछे रह गये साथियों को देखने की कोशिश कर रहा था।
क्योंकि प्रतिस्पर्धा से बाहर निकलने का डर जो था और उम्र के साथ मेरी धमानियां फूल रही थी सांसे टूट रही थी।
मैं अभी सोच ही रहा था कि अचानक ही मेरा आका चिल्लाया (जब पहली बार मैं कामयाब नहीं रहा)।
अबे तेरा ध्यान किधर है ‘हरामखोर’ गधे उल्लू के पठ्ठे।
मैं भौचक्का था अपने आका का ये चेहरा देखकर।
वह अभी भी आंखों पर बड़ा सा काला चश्मा लगाकर मुझे धूर रहा था, उसका सिगार अभी भी जल रहा था। लेकिन इस बार वह अपना जबड़ा भीचकर मुझपर चिल्ला रहा था।
मैंने हाथ उठाकर जब उससे कहा की मेरी धमानियां फूल रही है तो वह तिलमिला गया और मुझपर और तेज चिल्लाने लगा।
मेरी समझ में इससे पहले कुछ आता इससे पहले मैंने अपने पैरों के नीचे कुछ चिपचिपाहट महसूस की।
मैंने ट्रैक को ध्यान से देखा तो एक बदबू मेरे नाथूनों को भेदती हुई मेरे दिमाग को झकझोर गई।
‘मानव रक्त’ ये सोचते ही मेरा दिमाग फटने को हुआ।
मैंने देखा मैं जिस ट्रैक पर दौड़ रहा था वह तो कहीं समाप्त ही नहीं होता था वह गोल था और उसके चारों और मेरे ही जैसे प्रतिस्पर्धियों के आका विराजमान हैं।
इस दौड़ में शामिल हुआ जा सकता था लेकिन बाहर जाने का रास्ता ही न था।
मैं दौड़ रहा था अब भी, मेरा सांस फूल रही थी, मैंने अंतिम बार बगैर ये सोचे की मेरा अंत क्या होगा। मैं फिर दौड़ा पूरा जोर लगाकर।
मैं अभी दौड़ा ही थी कि मेरे पैरों के नीचे कुछ फंसा और फंसता ही चला गया।
मैंने जैसे ही अपने पैरों की ओर देखा, डर से मेरे मुंह से सिसकी निकल आयी और आंखों में खौफ से आंसू।
मेरे पैरों के तले मेरा ही एक साथी रौंदा जा रहा था।
वह प्रतिस्पर्धा में निरंतर दौड़ने से थक गया था और गिर गया था।
वह उठता इससे पहले ही मैंने उसके ‘पेट’(नौकरी) पर अपना पैर रख दिया था।
वह चीखकर कह रहा था कि भाई मुझे बचा लो, लेकिन अपने को विजयी रखने के लिए मैंने उसकी बात ही नहीं सुनी।
वह थककर लहूलुहान होकर ट्रैक पर निढाल होकर गिर पड़ा।
उसके गिरते ही एक के बाद एक प्रतिस्पर्धियों ने उसकी छाती पर पैर रखना आरंभ कर दिया और झुंड उसे रौंदता हुआ आगे निकल आया।
ये झुंड मेरे भी पीछे था, और लगातार मेरी ओर बढ़ रहा था।
मैं उन्हें अपनी ओर इस झुंड को आता देखकर और तेज दौड़ा, लेकिन झुंड के एक युवा प्रतिस्पर्धी ने मुझे पीछे पछाड़ दिया और उसके पीछा आता झुंड अब मुझे रौंदने ही वाला है, मैंने ट्रैक को अब अपने नाथुनों से महसूस किया।
ट्रैक पर मेरे जैसे अनगिनत प्रतिस्पर्धियों का लहू पड़ा था जो ट्रैक को पोषित कर प्रतिस्पर्धा को मजबूती दे रहा था।
वह लहू ही था जो ट्रैक पर फिसलन पैदा करता था और ट्रैक पर मौजूद हर्डल प्रतिस्पर्धियों को टूटे फूटे क्षतविक्षित शरीर थे ।
मेरी जैसे ही ये बात समझ में आयी पीछे की भीड़ ने मुझे रौंदा और मैं कुछ ही पलों में ट्रैक पर बिखर गया।
मुझे प्रतिस्पर्धियों ने रौंद डाला।
मैंने अंतिम दफा अपने आकाओं से हाथ उठाकर मदद मांगी, मेरा हाथ ऊपर उठका देख मेरे आका ने मुझपर गुर्राते हुए देखा और कहा, नालायक हमने तभी से तुझपर से अपनी दया हटा ली जिसदिन तूने पहली दफा ट्रैक पर देखा।
मैं कुछ समझता इससे पहले ही मुझे इस दुनिया की आवाजें आनी बंद हो गयी।
अब मुझे केवल अपने परिवार की आवाजें आ रही थी। मेरा चार साल का बेटा ‘पार्थ’ (अर्जुन जिसने महाभारत युद्ध में अहम भूमिका निभाई) जिसे मैं अपने जीवन के महाभारत के लिए तैयार कर रहा था, वह मेरे आकाओं के रहमों करम पर था। वह उसपर हंस रहे थे और उसके हाथों में गांडीव (कलम) की जगह अपना अध पिया व्हिस्की का प्याला दे रहे थे।
मेरी पत्नी उनके पैरों में थी जिसकी छाती पर उनकी निगाहे गढ़ी थी।
मैं अभी अंतिम सांसे ले ही रहा था कि मेरे आकाओं ने मुझपर रहम किया।
जोर का ठहका लगा कर उन्होंने मुझसे कहा, देखों मेरे गुलाम हमने तुमपर रहम किया।
आज तुम्हारा सपना (हमारा सपना) ये पूरा करेगा।
उन्होंने मेरे बड़े बेटे को जो अभी तक दुनिया के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ था उसे ट्रैक पर उतार दिया।
और तभी एक गोली की आवाज ने भारी सन्नाटा कर दिया।
सन्नाटा जो फैलता ही गया मेरी आंखों की तरह। क्योंकि फिर एक प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गयी थी, नया प्रतिस्पर्धी, शायद नहीं क्योंकि वह भी तो मेरा ही लहू है।

1 comment:

शैलेन्द्र नेगी said...

आपका ब्लाग पढ़कर ऐसा लगा कि आपने जीवन को आपने काफी करीब से जिया है। उम्मीद है आपके ऐसे ही मार्मिक लेख हमें भविष्य में पढ़ने को मिलते रहेंगे।