Wednesday, March 31, 2010

पुराने दिन फिर लौट आये

हाल ही में हमारे पुराने कालेज ने हमें याद किया। ये वो पल थे जिन्होंने मेरी पोस्ट ग्रेजुएट कालेज की यादों को एक बार फिर से ताजा कर दिया। मैं रात में ये सोच कर सो भी नहीं पाया कि कहीं मुझे सुबह कालेज पहुंचने में देर न हो जाये, क्योंकि मैं दस साल के बाद यहां जा रहा था तो मन में एक डर होना स्वाभाविक भी था। डर था, अगर किसी ने पूछा की दस साल के बाद आज आपने क्या पाया तो शायद मेरे पास एक ही जवाब था कि 'जिंदगी में मैंने कमाया बहुत कुछ, इस जिंदगी में मैंने गवाया बहुत कुछ, और सच कहूं तो इस जिंदगी ने मुझे सिखाया बहुत कुछ'। लेकिन शायद ये लफ्ज उन नये छात्रों के लिए ना काफी है जो अपना जीवन आरंभ कर रहे हैं।
खैर मैं अपने परिवार के साथ अपने कालेज पहुंचा। वहां पहुंच कर मेरे बेटे ने मुझ से बड़ी ही प्यारी बात कही, उसने मुझसे अपनी तोतली जुबान में कहा पापा आपका स्कूल बहुत बड़ा है। आप इस स्कूल में पढ़ते हो। उसकी ये बात सुनकर मुझे लगा कि वाकई मेरा स्कूल बहुत बड़ा है क्योंकि ये मेरा स्कूल ही है जिसने मुझे पार्थ, किश्लय (मेरा बेटे) और पत्नी को दिया। ये वही स्कूल है जिसने मुझे जीवन को जीने का अंदाज दिया। मैंने सर उठाकर और भरे गले से अपने बेटे के सर पर हाथ रखकर कहा 'हां बेटा वाकई मेरा स्कूल बहुत बड़ा है'।
इसके अलावा भी एक बात और है जो मेरे स्कूल यानी कालेज को बड़ा बनाती है। हम स्कूल में मात्र किताबों से रटारटाया ज्ञान लेते हैं, तोते की तरह हम रटा मारते हैं और परीक्षा में अच्छे अंक लाकर कालेज की दहलीज तक पहुंच जाते हैं। मेरा कालेज क्योंकि इस लिए भी मेरे लिए महत्व रखता है क्योंकि ये इसने मुझे एक अलग पहचान दी। दुनिया दारी को समझने की ताकत और समाज में रहने का तरीका समझाया। बेशक मैं अभी वह पहचान नहीं बना पाया हूं जो मुझे बना लेनी चाहिए थी. लेकिन मैं अपने घर से पहला पोस्ट ग्रेजुएट लड़का रहा, जो अपने गांव जब जाता था ( आजकल वो कस्बा हो गया है, जहांगीरपुर) तब मैं रास्ते में ही अपनी कमीज की आस्तीने ऊपर कर लिया करता था। मैं जैसे ही अपने गांव के बस स्टैड पर पहुंचता था तो मेरे जानने वाले मुझसे बड़े ही अदब से पेश आते थे। अब वो मुझे "अबे ओ फलाने के लौंडे" नहीं कहते थे। वो कहते थे भइया दिल्ली से आ गया। भइय़ा शब्द दिल्ली वालों के लिए छोटा हो सकता है लेकिन उस आदमी के लिए बहुत बड़ा शब्द है जो गांव देहात और कस्वों में रहने वाला है। भइय़ा का मतलब परिवार का सबसे समझदार और होनहार लड़का जिसे उसका बाप भी भइया ही कहता है। उसमें इतनी प्यार की चाशनी होती है जिसे बयान करना बेहद मुश्किल काम है। खैर मैं भइया हो गया, घर के मामलों पर मेरी राय ली जाने लगी और परिवार में सम्मान की नजर से भी देखा जाने लगा। हालांकि सम्मान पहले भी मिलता रहा लेकिन ये दूसरे तरह का सम्मान है।
हालांकि कालेज में अब बहुत से परिवर्तन हो चूके हैं और यहां के पेड़ और सड़कों के अलावा और कोई हमारी पहचान करने वाला भी बाकी नहीं बचा। हां एक ऑफिस के पुराने कर्मचारी हैं श्री प्रदीप बुद्धिराजा जिनके बाल सफेद हो चले हैं। मैं जब कालेज पहुंचा तो सभी कुछ वही था। कालेज की मंजिले आज भी लड़के लड़कियों की खिलखिलाहट से गूंज रही थी। आज भी कैंटिन में चाय और समोसा पहले लेने की होड़ थी। आज भी पार्कों में युवक युवतियां अपने आने वाले कल के लिए क्यारियों में लगे पौधों से अपने लिए सपनों के पुष्प तोड़कर अपनी अपनी झोली में रख रहे थे। आज भी कुछ लोग अपने सीनीयर्स को अपने हाथ की रेखा दिखा कर अपने भविष्य की बातों को जानने में उत्सुक दिखाई दे रहे थे। सभी कुछ वहीं था जो दस साल पहले था, नहीं था तो वह चेहरा जिसे में कालेज के दिनों में चोरी छिपे अपनी क्लास की ओर आने वाली सीढ़ीयों के ऊपर बने बरामदे में से झांककर देखा करता था और जब वह चेहरा मेरे पास आ जाया करता था तो में शर्मा कर अपनी आंखे झुकाकर उसे मुस्कुरा कर हैलों कहा करता था। मेरी आंखों ने उस चेहरे को कई बार खोजा लेकिन वो चेहरा आज मुझे नहीं दिखाई दिया हां उसका अहसास जरूर हुआ और होता भी क्यों नहीं क्योंकि वह चेहरा आज भी मेरी यादों में ताजा तो है ही।

3 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

शैलेन्द्र नेगी said...

sir abhi bhi uski yaad aati hai

Ravinder Kumar said...

आपका ब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद